अतिया ज्ञानकोश (अ) ११७ अणि मांडव्य रूसके कब्जेमें था। तत्पश्चात् यह तुर्किस्तानके का नियन्त्रण नहीं होता। इन अढ़तियों में से हाथमें आया। बाल्कन युद्धकी संधिमें तय हुआ महाराष्ट्रीय अढ़तियोंने एक असोसियेसन (परि- था कि तुर्क इसे छोड़ दें पर तुर्के ने लड़ाई जारी षद) स्थापित किया था परन्तु उसमें सब आढ़तों रखी और उस परसे कब्जा न हटाया। विगत ने भाग नहीं लिया। विदेशोसे ब्यापार करने महायुद्धमै तुकौंके हाथसे पुनः यह शहर चले जाने वाली आढ़तोंका वर्णन परदेशी व्यापारके अन्त- की नौबत आ गयी थी परन्तु यह अब भी तुकौंके र्गत है । अधिकारमें ही है। अढ़ाई-कच्छमें सोझुके अधिकारमें यह एक अदतिया-किसी व्यापारमें लेन-देनके कार्यो छोटा सा नगर है। यहाँ किलेबन्दी की हुई है। के लिये, अपने ही कारखानेका माल, अथवा यहाँको जनसंख्या लगभग ४५०० है। कपास का गोदाममें भरा हुआ माल खपाने के लिये, या दूसरे व्यापार यहाँ बहुत होता है। नगरके उत्तर ओर दूसरे कामोमें जवाबदेही सिर पर लेकर अपनी दो मीलकी दूरी पर काठी लोगौके छिपनेके लिये ओरसे तीसरे आदमी या दूकान के साथ व्यवहार छोटी छोटी गुफाये हैं। (वां गें) चलाने या करने के लिये विचवई (मध्यस्थ ) मनु अणि मांडब्य-यह मांडव्य ऋषिका नामा- ध्योंकी आवश्यता होती है। ऐसे मध्यस्थ आदमी स्तर है। पूर्वकालमें इस नामके एक अत्यन्त दृढ़ को श्रढ़तिया, गुमाश्ता या दलाल कहते हैं । निश्चय यथा सर्वधर्मज्ञ ऋषि हो गये हैं। इन्होंने कानूनी भाषामें ऐसे व्यक्तिको जो, दूसरे मनुष्यका ! बहुत समय कामनारहित होकर तप किया था। कार्य करने के लिये या किसी अन्य व्यक्तिसे लेन- एक दिन कुछ चोर चोरीका बहुत सा माल लिये देन करनेके लिए मालिकका प्रतिनिधि नियुक्त हुए छिपने के लिये इनके यहाँ आये। राजकर्म- किया जाय, उसे गुमाश्ता कहते हैं। जिस व्यक्ति चारियोको इनके आश्रम पर सन्देह उत्पन्न हुआ। के लिये व्यवहार किया जाता है अथवा गुमाश्ता अतः वे आश्रममै घुसकर चारो ओर खोजने लगे। जिसका प्रतिनिधि होता है वह मालिक (मुख्य यहाँ पर उन्हें चोर और चुराया हुआ धन दोनों व्यक्ति) कहलाता है। (धारा १८२ एकरारनामा) ही मिल गया। उस आश्रममें मिलनेसे राजाको (Cantract) ऋषि पर भी सन्देह हो गया। अतः राजाने चोरों व्यापारी दलालोंकी किस्में-इनका मुख्य कतव्य के साथ ऋषिको भी सूली पर चढ़ा देने की आशा मालिकके भेजे हुये अथवा सौंपे हुए मालको दे दी। ऋषिने योगाभ्याससे प्राण-संयम करके दलाली लेकर बेचना है। दलालका दुसरा काम वेदाध्यन करते हुए तपश्चर्या आरम्भ कर दी। मालिकके लिए आवश्यक माल खरीद कर उसके अन्य ऋषियोंने अन्त नसे सब स्थिति समझ ली पास भेजना है। इसी कार्य के लिए दलाल नियुक्त और माण्डव्य ऋषिके लिये अत्यन्त दुःखी हुए । किये जाते हैं और उनके नाम मुख्तारनामा भी | तब वे पक्षिरूप धारण कर राजाके पास आये लिख दिया जाता है अथवा मालिकके जितने काम और माण्डव्यऋषिके दण्डकी आशा राजासे निकलें उन सबको पूरा करनेका अधिकार उसको बदलवा ली। तदन्तर वह ऋषिके पेटमें घुसा मिल जाता है। इसकी मियाद नियमित काल हुआ शूल निकालनेका प्रयत्न करने लगे, किन्तु अथवा मालिकके मुख्तारनामा रद्द करने तक | वह निकल न सका। तब उन्होंने जड़के पाससे रहती है। सभी दलाल अढ़तिये नहीं होते। शूलको तोड़ डाला, किन्तु कुछ भाग भीतर ही रह बम्बईमें विदेशोसे व्यापार आढ़तोंके ही गया। इसीसे इनका नाम अणि-माण्डव्य पड़ा था। मार्फत होता है। ये आढ़ते अढ़तिया अथवा बाल्यावस्थामें ऋषिने एक चिड़ियाको खेल साहूकारोंकी होती हैं। विदेशी व्यापारियोंको करते करते लकड़ी भोंक दी थी। यमधर्म ने बम्बईके सभी व्यापारियोंका परिचय तथा ज्ञान इस अपराधके लिये ऐसेहो कठोर दण्डकी ऋषि नहीं होता इसी कारण आढ़तोकी आवश्यकता के लिये योजना की थी। ऋषिने इसपर क्रुद्ध होती है। ये श्राढ़ते अपनी जिम्मेदारी पर माल होकर राजाको अगले जन्ममें शूद्रकुलमें जन्म लेने खरीद कर बाहरी व्यापारियोंके पास भेजती हैं। के लिये श्राप दिया क्योंकि राजाने अल्प अपराध यह ब्यापार बम्बईमें अधिक प्रचलित है । ये लोग | के लिये इतने कठोर दण्डकी योजना की थी। १) प्रति सैकड़ा कमीशन लेते हैं। इसके अति- उसी समय ऋषिने नियम बना दिया कि १५ रिक्त सूद भी लगाते हैं। धर्म खाते भी ।) से 1) | वर्षको अवस्था तकमें किये हुये अपरोधका प्रति सैकड़ा काट लेते हैं। इस प्रकारके खातों । दण्ड प्राणिको न मिला करे। i
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