पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/१४०

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अएणाजीदत्तो ज्ञानकोष अ) १२७ अण्णाजीदत्तो राव दुष्टप्रकृति वाली सोयरा बाईका कभी भी राष्ट्रीय भावनाले दस गुनीसे भी अधिक थी। साथ न देगा। अतः विना उसकी लम्मत्तिके फेर औरंगजेब की दक्षिण की चढ़ाई के बाद अर्थात् में पड़े हुए ही सोयरा बाईकी सहायताले तथा शिवाजीके समयमै हिन्दू मुसलमानों में अधिक अपनी बुद्धि तथा बल पर आवश्यकतासे अधिक वैमनस्य उत्पन्न हो चुका था। जिस प्रकार अंग्नेज़ों भरोसा करके राजाराम रूपी कठपुतलीको आगे के आधीन बड़े बड़े ओहदों पर रहनेमै अब भी लोग करके राज्यसूत्रको अपने हाथमें ही रखनेकी महत्व- संतोष मानते हैं: उसी प्रकार उस समय भी कांक्षा अराणाजीने धारण की । फल यह हुआ कि सब मुसलमानोंके अधीन किसी पदपर रहनेमें लोगों मन्त्री तथा प्रधान इसको शंकाकी दृष्टिसे देखने को बड़े गौरवका अनुभव होता था। जिस समय लगे । मोरोपंत और जनार्दन पंत तो पहले ही सेवा-धर्म ही सर्व प्रधान कर्त्तव्य समझा जाने लगे से उसके विरुद्ध थे। अब हम्बीरराव भी अण्णा उस समय अपने धर्मके लिये स्वार्थत्याग करना जीके श्राचरणको अपमानकारक समझकर क्रुद्ध तथा अपने देशके लिये प्राणीको निछावर करना हुए। सेना तथा प्रजा हम्बीर रावका साथ देनेको संभव नहीं होता। अष्टप्रधानोके लम्बे लम्वे तय्यार थी। ऐसी दशामें जनन पंत तत्काल ही वेतन और अनुचित ऊपरी आमदनीका ध्यान राणाजीके विरुद्ध संभाजीसे जा मिला। हम्बीर | करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय योग्य रावने भी समाजके तथा अन्य बड़े बड़े लोगोंसे से योग्य मनुष्य भी धनकी सहयतासे कठ-पुतली पत्र-व्यवहार करके अण्णाजी मोरो पंत और ! की भांति नचाये जा सकते थे। औरंगजेब सो प्रल्हाद पत्तको कराड़के मार्गसे जाकर रास्ते में शत्रु हिन्दू राज्योंको धूल में मिलानेके लिये उद्यत गिरफ्तार कर लिया और संभाजीके पास ले गया। | देखते हुए भी शूरः संभाजीके विरुद्ध षडयंत्र रच अनन्तर हम्बीर राव ने समस्त सेना एकत्र करके | कर तथा राजाराम रूपी कठपुतलीको लोगोंके संभाजीको राज्य दिलाया। जून महीने में संभा- सामने रखकर शासनाधिकार अपने हाथोमें लेने जी रायगढ़ आया और राजा बन बैठा। उसने की इच्छा करने वाले अण्णाजी का आचरण सोयराबाईको प्राण दंड दिया और राजारामको केवल श्राश्चर्यजनक ही नहीं, बल्कि घृणित भी कैद कर लिया। इस प्रकार अराणाजीका षड़यंत्र | है। शिवाजीके श्राधीन काम किये हुए अनुभवी विफल हुआ । चार या पांच महीने बाद अर्थात् और कार्य दक्ष समझे जाने वाले अण्णाजी भी सितंबर मासमें संभाजी ने अराणाजीको कैदसे अपनी नीच करतूतोंको आहिर हो जाना देखकर मुक्त कर दिया और उसे मजसूहीके उच्च पद भी उनके लिये खेद और पश्चात्ताप न प्रकट कर पर नियुक्त कर दिया। अण्णाजी ने अपने किए सके, उलटे राज्य-नाश करने के लिये ही कटि-बद्ध हुए पापके लिये पश्चात्ताप करना छोड़ दिया और हुए। इस कारण प्रत्येक मनुष्य अण्णाजी को वह संभाजी द्वारा किए हुए अपने अपमानका तिरस्कार की दृष्टि से ही देखेगा। लेकिन उस बदला लेने पर उतारू हुआ। औरंगजेबका पुत्र समयकी यही दशा थी कि नेता स्वार्थ तथा अकबर जिस समय संभाजीके पास शरण माँगने | स्वामि-भक्तिको छोड़कर और कोई तीसरी बात के लिये श्राया; उस समय अण्णाजी ने शिरके जानते ही न थे। इन सबका यह फल हुआ कि लोगोंको उभाड़कर उसके साथ संभाजीके विरुद्ध अण्णाजो वाले षड़यंत्रमें फंसे हुए प्रधानों परसे षड़यंत्र रचना चाहा। अकबर ने डरके मारे संभाजी का विश्वास उठ गया। उनमैसे कितनेही संभाजीसे षड़यंत्रका सब हाल कह सुनायो । उसे मार डाले गये और जो बचे उनका भी नाम निशान सुनकर संभाजी अत्यन्त क्रुद्ध हुआ, और सम्पूर्ण न रहा । इस प्रकार महाराष्ट्र देशकी सारी योग्यता शिरके वंशका नाश करा डाला। अरणाजी और तथा कार्य पटुता इस जीवन मरण के समय नष्ट दूसरे षड्यंत्रकारियोंको पटलीके निचे कैद करके : हो गई और संभाजी ऐसे वीरके लिये भी अच्छे हाथीके पैरोके तले रौंदनेका दंड दिया। इस तथा अनुभवी राजनीतिज्ञोंके अभावमें स्वधर्म प्रकार इस पुरुषका अगस्त सन् १६८१ में अन्त तथा राज्यकी रक्षा करना असंभव सा होगया। हुश्रा । किन्तु उसके षडयंत्रोका दुष्परिणाम उसके चारो ओर मनोमालिन्य ही दिखलाई देता था। पीछे मराठी और महाराष्ट्र देशको सदाके लिये शिवाजी तथा उनके वीर अनुयायियोंने अपने रक्त भुगतना पड़ा। की नदियाँ बहा कर, दिनरात अदम्य उत्साह तथा कहनेका तात्पर्य यह है कि शिवाजी के समय कठोर परिश्रम से जो राज्य स्थापित किया था वह जो धार्मिक जागृति हुई थी, वह स्वराज्य प्रेम या प्राणाजी की स्वार्थप्रियता और हठवादिताके