पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/१६१

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अतिरात्रयज्विन् ज्ञानकोश (9)१४८ अतिसार इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यदि ऋण न लाना चाहिये क्योंकि ऐसी जड़ी विषैली विद्युत्कण निकाल लिये जावें तो जो शेष बचेगा | होती हैं। वे धन विद्युत्कण होंगे। बेनजामिन फ्रङ्कलीन गुण -इसमें विशेषतः ज्वरघ्न और शक्तिवर्धक का मत इसी प्रकार है। इससे पूर्वकालीन धर्म है । यह पाचक और स्तम्भक भी होता है। विज्ञान-वेत्ताओंके मतकी पुष्टि फिरसे भविष्यमें ज्वर विशेषतः हिम्ब ज्वर, ज्वरके वादको होने की सम्भावना है। अशक्तता, अपचन, वमन दस्त और खांसी आदिमें धन और ऋणके मिश्रणसे परमाणु उत्पन्न इसका उपयोग करते हैं । इसके छालका उपयोग होते हैं। किन्तु फ्रङ्कलीनका मत यह नहीं था। कपड़ा रङ्गने में करते हैं। अभी तक ये सब अनुमान ही अनुमान है। ये प्रमाण---ज्वरमै २०-३० ग्रेन बुकनी प्रत्येक सब अनुमान सिद्धान्तरूपमें तभी माने जा तीन अथवा चार घण्टेकी अवधि पर लेते रहना सकते हैं जब धन विद्युत्कणका रूप पूर्णतया चाहिये । ज्यर होने पर भी अथवा उतर जाने पर स्पष्ट हो जाये। किसी भी अवस्था में लेनेसे हानिकी सम्भावना अतिरात्रयविन्-यह अपथ्या दीक्षितका नहीं है । हिम्बज्वरके नियत समय (पारी) को पौत्र और नारायण दीक्षितका पुत्र था। इसने टालनेके लिये समयके तीन चार घण्टे पूर्व अथवा 'कुशकुमुद्वितीय' नामक पंचाती नाटक लिखा । पसीना आचुकनेके तीन चार घण्टे बाद कोपनेल 'नील कंठ विजय चम्पू' के रचयिता नीलकंठ की भाँति थोड़े जलके साथ इसे भी पी लेना दीक्षितका यह छोटा भाई था। चाहिये । शक्ति बढ़ाने के लिये प्रथया और विकारों अतिविष-संस्कृतमें इसे अतिविष, घुण- | के लिये ५-१० ग्रेन तक वुकनो देनी चाहिये । प्रिया आदि नामसे सम्बोधित करते हैं। अंग्रेज़ी काड़ा-यदि ज्वरके साथ दस्त भी होते हो तो में इसे अकोनाइटम ( Aconitum ) हेटरोफिल ! अतिविष, सोठ, नागरमोथा, गुड़चीकी जड़ तथा कहते हैं। यह तीन प्रकारकी होती है-(२) कुड्याकी छालको ६-६ माशे लेकर आधसेर जल सफेद, (२) काली और (३) पीली। इस नाम | में काढ़ा पकाना चाहिये और जब चौथाई हिस्सा से यह बोध होता है कि यह बचनागकी जातिमें जल रह जावे तो उसे दिन में तीन चार बार थोड़ा होगी और विषपूर्ण भी है। परन्तु यह विषैली थोड़ा लेते रहना चाहिये। नहीं है, यद्यपि बनस्पति शास्त्रके वर्गीकरण के चूर्ण-छोटे लड़कोके ज्वर, दस्त,खांसी अथवा अाधार पर तथा उसके श्राकार तथा रूपसे उसे | उदर विकारसे वमनमें अतिविषका उपयोग करना वचनागके वर्ग में ही समझना चाहिये । यह वन- चाहिये । उस समय या तो केवल उसीकी बुकनी स्पति हिमालय तथा दूसरे पहाड़ी पठारों पर | अथवा अन्य औषधियोंके साथ उसको सेवन अधिकतासे पाये जाते हैं। कराना चाहिये। अतिविष नागरमोथा तथा वर्णन-वजारमें यह गाँठोसे युक्त देखनेमें | काकड़ासिंगीको सम भाग लेकर उसका चूर्ण आता है। इसकी जड़े महीन महीन होती हैं। बनाना चाहिये और अवस्थानुसार उसे शहद इसके सिरे महीन तथा नोकीले होते हैं। इसकी मिलाकर बालकोंको चटाना चाहिये । कभी कभी लम्बाई लगभग डेढ़ दो इञ्चकी होती है। और पीपलकी बुकनी भी मिलाते हैं । इन चारों औष- मोटाई लगभग चौथाई इञ्चकी होती है। उसका धियोंके चूर्णको 'बाला चतुर्मद्रिका' नाम चक्रदत्त बाह्य छिलका कड़ा होता है और उसपर सिकुड़ने ने दिया है। पड़ी रहती हैं। उसके बीच बीचमें जड़ोंके चिन्ह अतिविषको संस्कृतमें जो घुणप्रिया' नाम दिया पड़े रहते हैं। वे सहजही तोड़ी जा सकती हैं। गया है वह अर्थके ऊपर ही रक्खा गया है। इसमें जड़ीके भीतरका रङ्ग सफेद होता है। इसमें कीड़े लग जाते हैं, अर्थात् यह कीड़ोंको प्रिय है। सुगन्ध बिल्कुल नहीं होती। इसमें अन्नता विल्कुल | इसीसे इसका नाम भी घुणप्रिया पड़ गया। नहीं होती । कुछ कड़वी अवश्य होती है। इसका अतिसार-निदान-बार-बार और अधिक सेवन करते समय प्रत्येक जड़ीको तोड़ना दस्त होनेको अतिसार कहते हैं। चाहिये । जो भीतरसे सफेद भूरी और कड़वी न वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, भयज, हो उसे व्यवहार में न लाना चाहिये। जिसको और शोकज ये इस रोग के ६ प्रकार हैं। चबानेसे जीभ पर बारीक बारीक रोम उठने लगे अत्यन्त पानी पीना, शुष्क मांस भक्षण, आदत और शरीर सुन्न होने लगे उसे भी व्यवहार के विरुद्ध पदार्थों का खाना, बहुत मद्यपान करना, ।