पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/१६८

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उनका अथर्वण ज्ञानकोश (अ)१५५ अथर्वण इस शब्दसे सब पुरोहितोंकी संज्ञा की जाने लगी। अभिचार कल्प नाम दिये गये हैं , 'स्वाध्याय' 'अथर्वन्' शब्द पशु भारतीय समयका है और वर्ष १ले अ० ला) कदाचित् अवेस्ताके 'अभंवन' शब्दसे इसका आजकल भारतवर्ष में इस वर्गका अस्तित्व नष्ट सम्बन्ध विदित होता है। (देखिये अथर्ववेद) प्रायही समझना चाहिये, केवल कहीं कहीं नाम ब्राह्मण जातिके प्रभुत्वमे आने तथा पुरोहितका मात्रको रह गये हैं। कर्म उनके हाथमें आनेके पहले शायद भारतियोके अथर्व वैदिक ब्राह्मणों के सम्बन्धका आधुनिक ज्ञान:- पुरोहित अथर्वण वर्ग के ही होते होंगे। इस वर्ग सतारा जिलेके चिन्धयली गांवके निवासी रा० का वेद अथर्ववेद है। इसको शाखायें निम्नलिखित अन्ताजी काशीनाथ कुलकर्णी (काले ) से इस प्रकारसे बनी:- विषय का बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ है। महर्षि व्यासने सुमन्तु नामक अपने अत्यन्त राघव कुलकर्णीका घराना चिन्धवलीमें दो तेजस्वी शिष्यको 'महातरु' को अर्थ नामक चौथी 'तीनसौ वर्षसे बराबर रहरहा है। उनके मालन्दन, शाखा बताई। सुमन्तुने 'कबन्ध' नामक अपने प्रवर काश्यप, आयत्सार तथा नैध्रुव गोत्र हैं। शिष्यको उन शाखा विभागोंका अध्ययन कराया। उनके कुल गुरू नागेश भट्ट वि.चालमह जोशी नामक काधने उस संहिताके दो भाग करके अपने कौशिकि गोत्रके माहुलीकर ब्राहाण थे। देवदर्श तथा पथ्य नामक दो शिष्यों को पढ़ाया। गोत्र मालन्दन था। उनकी शाखाके गोत्र भारद्वाज मौद्ग, ब्रह्मवली, शौलकायनी, पिप्पलाद श्रादि ! उपमन्यु कौशिकि तथा शावास्य (श्यावाश्व ) अनेक शिष्य देवदर्शके थे। पथ्यके भी जाजली, थे। पिंध-बलीमें भी अथर्वण वर्ष के तीन घर हैं ! कुमुद तथा शौनकशिष्य थे। ये प्रसिद्ध संहिताकार थोड़े बहुत मलुपडीमें भी है। इनकी धर्मविधि हो गये हैं। शौनकने अपनी संहिताको दो भागों ! गत १५-२० वर्षसे इनकी शाखानुलार नहीं होती। में करके एक भाग वन और दूसरा सैन्धवायन इस शाखाका विधि पूर्वक पालन करनेवाले को लिखाया। सैन्धवायन तथा मुञ्जकेशके शिष्यों ब्राह्मण आधुनिक समयमै सांगली तथा ग्वालियर ने भी अपनी अपनी संहिताके दो दो भाग किये। राज्यमें मिलते हैं। श्रीयुत् कुलकर्णीजीसे इस श्रेष्ठ अथर्वणोंकी संहिताओंके पांच भेद है: विषयमें पूछने पर उन्होंने निम्नलिखित स्थान (१) नक्षत्र कल्प, (२) वेद कल्प, (३) संहिता- बताये हैं। (१) वाईताल्लुके चिन्धवती : (२) कल्प, (४) अंगीरस कल्प तथा (५) शांतिकल्प। सतारामें माहुली संगम, चिंचनेरे, वथा महागाँवा वायु पुराणमें भी इसका उल्लेख ऐसा ही मिलता (३) कोरेगाँव में जयगाँव । (४) माण मलवड़ी है। भेद केवल इतनाही है कि वायु पुराणके दही वड़ी, विद्याल महिमागढ़ । (५) खटाव पोल, अनुसार सैन्धवायनने अपने शिष्य मुञ्जकेशको दिसकल, बूध, पुसेगाँव, कडगुण, खाद्गुण जानन अपनी संहिताके दो भाग करके दिये थे। विष्णु गाँव, अमेरो जाम गाँव उम्बरमले, कुरवली, कातर पुराणमें भी ऐसा ही लेख मिलता है । विष्णुपुराण | खटाव । (६) सांगली रियासत तथा (७) पूना के श्लोकोंका अर्थ इस भाँति करनेसे कहीं भी जिलेमें। काशी, प्रयाग, गया, लष्कर इत्यादि असामाजस्य नहीं होता-गुरु शिष्य सैन्धवायन | स्थानोमें भी इन लोगोंको कुछ बस्ती है। तथा मुअकेशके पश्चात्के होने वाले शिष्योंने अपनो महाराष्ट्र देशमें इन शाखा बोलांका विवाह अपनी संहिताको दो दो भागों में अलग अलग कर संबंध तहशस्थ कवाडे ब्राह्मण, ऋग्वेदी, अथर्वण दिये। विष्णु पुराणमें केवल नाम मात्रका भेद तथा आपस्तंव शाखीय लोगोंसे होता है। ये रह जाता है। उसमें मौद्गलको मौद, शौल ब्राह्मण अपना वेद सबसे श्रेष्ठ समझते हैं । इनका कायनीको शौष्कायनी, देवदर्शको वेदस्पर्श संबो- कथन है कि इस वेदके आर्थ देवता परशुराम हैं धित किया है। पञ्चकल्पोंमें दूसरे वेदकल्पके ऐसी कथा प्रचलित है कि एक बार क्षत्रपति वदले 'वैतान' नाम दिया है। अथर्ववेद तरुमे शिवाजी ने इन ब्राह्मणोकी परीक्षा लेनेका विचार कुल नौ शाखाये फूटी और उनमें पञ्चकल्प रूपी किया। तब नैवेद्यके लिये जो पदार्थ रक्खे गये फल लगे । चरण व्यूहमें अथर्व संहिता वेदके नामो थे वे फूल बन गये। इससे प्रभावित होकर की सूची इस प्रकार दी हुई है:-पिप्पल, दान्त, छत्रपतिने इन लोगोंको बड़े बड़े येवन वाँध दिये दामो दान्त, औतपन, जावाली शौनक ब्रह्म थे। पितरपक्षमें पितरों का नामोच्चारण करते पलाश, देवदर्शी और चारणविद्य। इसके अतिरिक्त रूमय पहले पितामह, फिर प्रपितामह और अन्त वैतान कल्पको विधान और श्रांगीरस कल्पको में पिता, अदित्य, रुद्र, तथा वसुरूप इन अनु. -