पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/१६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अथर्ववेद -- अथर्णवाचार्य ज्ञानकोश (अ) १५६ क्रमसे कहते हैं। सांगली रियासतमें शावास्य । तरह पशुओंके प्राचार्य लोग विदेशी थे उसी गोत्रके वापू पारण नामक एक बहुत विद्वान प्रकार हिन्दुओके प्राचार्यभी विदेशी हों। इतना महाशय हैं। अवश्य सिद्ध है कि इन पुरोहितो बा आचार्यों में अथणवाचार्य -~-यह बड़े प्राचीन तेलगू कुछ विदेशी लोग घुस गए थे। ब्राह्मण थे। यह उक्क कोटिके कवि थे। इनका 'अथर्वन् मंत्र सुख देनेवाले और पवित्र हैं। समय लगभग ३॥ हजार वर्ष पहले निर्धारित 'अंगिरस' मंत्र ठीक विपरीत अर्थात् अघोर और किया जाता है। ये तेलगू तथा संस्कृत दोनों ही पीड़ा देनेवाले हैं। इसका स्पष्टीकरण यों हैं। भाषाके पूर्ण विद्वान थे। महाभारतके आधार 'अथर्वन्' मंत्रोंमें रोग निवारक विधियोंका वर्णन पर इन्होंने एक ग्रंथ तेलगू भाषामें लिखा है। है तो 'अंगिरस' मंत्रोंमें द्वेषी शत्रु और मायावी वर्तमानकाल में उसका बहुत थोड़ा सा भाग प्राप्य तथा पीड़ा देनेवालोको शाप देनेकी विधियाँ कही है। इनके वादके कवियोंने इनकी कविताका गयी हैं। अथर्ववेदमें प्रधानतः 'अथर्वन् और बहुत सा भाग अपनी कृतियों में मिला दिया है। अंगिरस'-दोनों प्रकार के मंत्रोंकी विधि बतलायी अथर्ववेद--सामान्य रूप-श्राथर्ववेदमें अभि- गई हैं । इसी लिये इन वेदोका पुराना नाम 'अथ- चार मंत्र हैं। यह अर्थवन् लोगों का वेद है। वांगिरस' है । 'अथर्ववेद' नामकरण बादमें हुआ प्राचीन समयमै अग्निके उप तक पुरोहितोंको और यह अथर्वांगिरस वेद' नामका संक्षिप्त रूप है। अथर्वन् कहते थे। बादमे यही नाम सामान्यतः 'अथर्ववेद संहिता की एक प्रतिमें कुल ७३१ सब पुरोहितोंके लिये हो गया। यह शब्द पशु-: सूक्त और लगभग ६००० ऋचाएँ हैं। इस वेदके भारतीय काल का है । अवेस्तामें उल्लिखित | २० कांड हैं । २० वाँ कांडतो बहुत बादका लिखा 'अथवन्' और हिन्दुओंके अथर्वन् लोगों में बहुत हुश्रा मालूम होता है और १६ वाँ कांडभी पहले कुछ समानता है। प्राचीन ईरानियों में अग्नि पूज- शायद इस संहितामें नहीं था। बीसवें कांडके करीब कोंके नामसे जो प्रसिद्ध हुए उनमें जिस प्रकार करीब सभी सूक्त अक्षरशः ऋग्वेद संहितासे लिये अग्निका महात्म्य था उसी तरह प्राचीन भारती हुए हैं। इसके अलावा अथर्ववेद संहिताका लगभग योंकी दैनिक पूजा विधिर्मभी अग्निकी वैसीही सप्तमांश भाग ऋग्वेदही से लिया गया है । ऋग्वेद प्रधानता थी। ये प्राचीन अग्नि पूजक अमेरिकाके और अथर्ववेद दोनों में समान रूपसे मिलनेवाली 'इंडियन' लोगोंके वैद्योंकी तरह अथवा उत्तर ऋचाओंमै श्राधीसे अधिक ऋग्वेदके दसवे मंडल एशियाके 'शामत' लोगोंकी तरह जादू टोना जानते में मिलती है और बाकी बहुतसी ऋचाएँ ऋग्वेद थे। ये अग्नि-उपासक 'जारण-मारण' विद्याभी के पहले और आठवे मंडल में मिलती हैं। जानते थे। यानी एकही व्यक्ति प्राचार्य और अभि अथर्ववेदके १८ कांडोंके सूक्तौकी रचना बहुत चारक दोनोंही था। मीडिया देशमें 'अश्रवन्' नियमित और सुव्यस्थितकी गई है। पहले सात लोगोंको 'भगी' (जादू टोना जाननेवाले अग्नि | कांडोंमें बहुत छोटे छोटे सूक्त हैं। पहले कांडके पूजक ) कहते थे। इसी कारण पुरोहितवर्ग में सूक्त साधारणतः चार-चार ऋचाओके; दूसरे में श्राचार्य और अभिचारक दोनों का संयुक्त पांच ऋचाओंके तीसरेमै छः ऋचाओके और अस्तित्व सिद्ध होता है। इसी प्रकार यहभी स्पष्ट चौथेमे सात ऋचाओके हैं । यही साधारण क्रम है कि अथर्वन लोगोंके अथवा प्राचार्य अभिचा- है। पांचवें कांडके सूक्तोंकी ऋचाएँ कमसेकम रकोंके मंत्री (अभिचारों) का नाम 'अथर्वान्' पाठ व अधिकसे अधिक अठारह हैं। छुढ़े कांडमें था । भारतीय साहित्यमें इस वेदका बहुत पुराना तीन ऋचाओके १४२ सूक्त हैं और सातवे कांडमें नाम 'अथर्वांगिरस था। इतिहास कालके पूर्व एक या दो ऋचाओंके ११८ सूक्त हैं। आठसे लेकर 'अंगिरस' नामकी अग्नि-उपासकोकी एक जाति चौदहवे कांडमै और सत्रहवें तथा अठारहवे थी । अथर्वन् शब्दकी तरह 'अंगिरस' शब्दका | कांडमें लंबे लंबे सूक्त हैं। इन उपर्युक्त कांडों में अर्थभी जारणमारणादि' मंत्र किया जाने लगा। सबसे छोटा सूक्त (२१ ऋचाओंका) आठवे कांड परंतु अथन और 'अंगिरस' दो भिन्न वर्गोंके का पहला सूक्त है और सबसे लंबा सूक्त (ES मंत्र हैं। ऋचाओंका ) अठारहवें कांडका अंतिम सूक्त है ! एक कल्पना यहभी है कि ब्राह्मण जातिको पंद्रहवाँ कांड पूरा और सोलहवें कांडका बहुतसा उत्पत्तिके पहले जो लोग पुरोहितका काम करतेथे अंश गद्यात्मक है। इनको भाषा और रचना उन्हें अथर्वण कहते हैं । यहभी संभव है कि जिस 'ब्राह्मण' ग्रंथोकी तरह है। इन बातोंके देखनेसे - --