पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/१७३

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अथर्ववेद ज्ञानकोष (अ) १६० अथर्ववेद राक्षस मानकर मंत्रों द्वारा उनको संबोधित पातालमें चला जा और यहाँसे गायब हो जा ॥२॥ (व्यक्त) किया गया है। कहीं कहीं यह मानकर जो परुष जलने वाला और परुषसे उत्पन्न कि अमुक रोग अमुक राक्षसके द्वारा उत्पन्न होता | हुए अरुण वर्णकी धूलिकी तरह है ऐसे तक्मनको, है. मंत्र कहे गए हैं। श्रन्यान्य लोगोंकी तरह शरीरमै विश्ववीर्य धारणकर मिट्टी में मिलादो ॥३॥ हिन्दू भी इस वातको मानते हैं कि ये राक्षस गण हे तक्मन् ! तू मूजपन्तोके पास जा या उनसे रोगियों को बाहरसे दिक करते हैं और रोगियोमें भी परे बल्हिकोंके पास जा । किसी कामुक शुद्ध प्रवेश कर उनके शरीरको चालन देते हैं। कुछ युवतीको खोजले और इच्छा भर उसे तंगकर ॥७॥ मंत्रों में तो रोग निवारक औषधियोका आवाहन तू कभी कम तो कभी अधिक रहता है और और स्तुति है; कुछ मंत्रीमें रोग दूर करने वाले कासा (खांसी) के संयोगसे हमें हिला देता है। किसी विशेष जलकी प्रार्थना है और कुछ मनोमे हे तक्मन् ! ये तेरे उपद्रव बहुत भयानक हैं । ऐसे राक्षसोको दूर भगाने वाले अग्निकी स्तुति इनके द्वारा हमें तंग न कर ॥ १० ॥ है। ये मंत्र और इनके प्रयोग तंत्र) ही आयुर्वेदके हे तक्मन् ! तेरा भाई बलास, बहन कासिका उद्गम स्थान हैं। इस प्रकार के वैद्यक ज्ञानका और भतीजा पाप्मन सवको लेकर तू विदेशियों के वर्णन कौशिक-सूत्रों में मिलेगा। इन मंत्रोमे भिन्न | पास जा ॥ १२ ॥ भिन्न रोगोंके लक्षण विस्तार-पूर्वक दिये गए हैं। अथर्ववेदमें यह इच्छा वार बार प्रकट इसी लिये वैधकके इतिहासमें इन मंत्रोंका बहुत की गयी है कि रोग अन्य देशोंके लोगोको तंग उल्लेख हुआ करता है। उपरोक्त विधान ज्वरके | करें, उन देशों पर जा कर हमला करें। मंत्रोंमें विशेष कर उपयोगी है। ज्वर बार बार जिस मंत्र द्वारा खाँसी किसी रोगीके शरीरसे आता है और कठिन पीड़ा देता है, इस लिये वेद- दूरकी जाय वह मंत्र इस प्रकार है-- कालके पश्चात् निर्मित ग्रंथों में भी इसको रोगोंके यथा मनो मनस्केत परापतत्याशुमत् । राजा' की पदवी दी गयी है । अथर्ववेदमें एवा त्वं कासे प्रपत मनसोनु प्रवाय्यऽम् ि॥१॥ 'तक्मन' नामक ज्वरको राक्षस मानकर उसको यथा बाणः सुसंशित परापतत्याशुमत् । संबोधन करके बहुतसे मंत्र दिये हुए हैं । उदा एवा त्वां कासे प्रपत पृथिव्या अनु संवतम् ॥२॥ हरण के लिये अथर्ववेदके पांचचे कांडके बाईसवें यथा सूर्यस्थ रश्मयः परापतन्त्याशुमत् । सूक्तको देखिये । उस सूक्तकी कुछ ऋचाएँ एवा त्वं कासे प्र पत समुद्रस्यानु विक्षरम् ॥३॥ नीचे देते हैं:- अथर्व ६.१०५. अयं यो विश्वान हरितान् कृणोष्युच्छो चय जिस तरह मन बुद्धिसे परे दूरस्थ विषयोंकी नग्जिरिवाभिन्दुचन् । अधा हि तमन्नरसो हि ओर अत्यंत वेगसे दौड़ जाता है उसी प्रकार हे भूया अधान्यङ्डिः धरावापरेहि ॥२॥ कास! तूभी उसी मनोवेगसे जा॥१॥ यः परुषः पारुषेयोविध्वंस इवारुणः। तक्मानं जिस प्रकार सज ( तयार किया हुआ) बाण विश्वधावीर्याधराऊचं परा सुव ॥ ३॥ ! अति वेगसे भेदन करता है, उसी प्रकार हे कास! तक्मन् भूजवतो गच्छ बल्हिकान्वा परस्त- तूभी (पाताल पर्यंत.) चला जा ॥ २ ॥ राम् । शूद्रामिच्छ प्रफयं तां तक्मन वीवि जिस तरह सूर्यके किरण बड़े वेगसे चलते हैं धूनुहि ॥ ७॥ उसी प्रकार हे कास! तभी समुद्र की लहरों के यत् वं शीतोथो रूरः सह कासावेपयः । साथ जा ॥३॥ भीमास्ते तक्मन् हेतयस्ताभिः स्म परि वृद्धि कुछ मंत्र अपनी सुन्दर भाषाके कारण काव्य के नः॥१०॥ अच्छे नमूने माने जा सकते हैं । हाँ, इस काव्य- तक्मन् भ्रात्रा बलासेन स्वस्रा कासिकया रसमें विशेष आनन्दकी आशा रखना व्यर्थ है। सह । पाप्मा भ्रातृव्येण सह गच्छामुमरणं जनम्॥१२॥ बीच बीचमै कुछ कल्पनाएँ अवश्य सम्मुख पा जायँगी जिनसे हृदयको आनन्द प्राप्त होगा या आगकी तरह तेज गरमीसे जलाकर दुनियाके | कुछ मनोरंजन हो सकेगा। यह दिखायी देगाकि लोगोंको तू पीला बना देता है। इस लिये इन वैदिक कवियोंने अपनी उपमाओके लिये रक्त हे तक्मन् ॐ ! तू बलहीन व तेजहीन हो जा। वाहिनी नाड़ियाँ, या पेट में उत्पन्न होनेवाले कीड़ों तकको उपमेय माना है। इस प्रकारको एक सुन्दर कल्पना अथई. १. २७ में है। यह मंत्र रक्त नाव अथर्व० ५.१२

  • ज्वरताप