पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/१७४

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अथर्घ ० १, १७. अथर्व० २.३१. अथर्ववेद ज्ञानकोष (अ)१६१ अथर्ववेद के रोकनेके संबंध है। इसमें रक्त वाहिनी जमा है। उन सबका दुखदायी कीड़ौकी तरह नाड़ियोंको रक्तांबरधारी कुमारियोंके नामसे नाश हो ॥ १॥ संबोधित किया है। जो सात और सत्तर ( कंठमाला) प्रैव्या श्रमूर्या यन्ति योषितो हिरा लोहितवाससः । नाड़ी पर एकत्रित हैं उनका अपचित् कीड़ोंकी अभ्रातर इव जामयस्तिष्ठन्तु हतवर्चसः॥१॥ तरह नाश हो ॥२॥ तिष्ठावरे तिष्ठ पर उत त्वं तिष्ट मध्यमे । जो नौ और नब्बे कन्धोंके अगल-बगल जमी कनिष्ठिका च तिष्ठति तिष्टादिद्धमनिर्मही ॥२॥ हैं उनका भी कीड़ों की तरह नाश हो । शतस्य धमनीनां सहस्त्रस्य हिराणाम् । यह कल्पना बहुत पुरानी है कि बहुतसे रोग अस्थुरिन्मध्यमा इमा साकमन्ता अरंसत् ॥३॥ : जन्तुओं (कीड़ों) से उत्पन्न होते हैं। इसी लिये परिवः सिकतावती धनू हत्यक्रिमीत् । अथर्ववेदमें सब तरहके जन्तुओंका अपसरण तिष्ठतेलयता सु कम् ॥ ४ ॥ (नाश) करनेके लिये एक मन्त्रीकी मालिका ही तयार की गयी है। ये रक्त वस्त्र (लाल वस्त्र ) पहन कर जाने अन्यान्य शीर्पण्यश्मथो पाप्टेयं क्रिमीन् । वाली रक्त वाहिनी कुमारियाँ, जिनको भाई न हो अवस्कवं व्यध्वरं क्रिमीन वचसा जम्भयामसि ॥४॥ ऐसी बहनोंके समान बलहीन होकर अपनीही ये क्रिमयः पर्वतेषु वनेष्वोषधीषु पशुप्वप्स जगह पर चुपचाप खड़ी रहे ॥१॥ रन्तः। ये अस्माकं तन्वमाविविशुः सर्व तद्धन्मि निम्न भागमे बहनेवाली धमनी ! तू ठहर जा; जनिम क्रिमीणाम् ॥ ५॥ ऐ ऊपरवाली तू भी ठहर जा; मध्यमें बहनेवाली तू भी ठहर । सबसे छोटी धमनी तो रुकही अंतड़ियों में सिरमें और पाषणोंमें रहनेवाले गयी। अब बड़ीभी ठहर जाय ॥२॥ । कीड़ोंका, भीतर घुसनेवाले कीड़ों (अवस्कर) सौ धमनियों और हजार रक्तवाहिनी शिरा- और अन्य मागाँसे भीतर जानेवाले कीड़ो (व्य- ओंकी नाड़ियाँ बन्दहो गई और बाकी रुधिर- : ध्वर ) का में इस मंत्र द्वारा नाश करता हूँ ॥en स्तंभन (रोकनेवाली) धमनियोंके साथ खेलने जो कीड़े पहाड़, जंगल, वनस्पति, पशु और लग गयीं (अर्थात् उन्होंने भी रक्त स्राव बंद जलमें घुसे हुए हैं और वहाँ से हमारे शरीर कर दिया ॥३॥ में घुस गए हैं, उन सबको जड़ही मैं खोद ये ऋचाएँ सदा काव्यमयही नहीं होती; अक्- डालता हूँ ॥५॥ सर एक सुरी (वारबार वही बात कहनेवाली) मालूम होता है उस समय इन रोग उत्पन्न होती हैं। इनमें हर एक ऋचामें काव्यका इतनाही | करनेवाले जन्तुओंके विषय में लोगोंकी ये भाव- रूप झलकता है कि वही वही शब्द उन्हीं उन्हीं नाएं थीं कि ये जंतु असुर ( मनुष्येतर ) हैं, इनमें वाक्योंका पुनरुच्चार (बारबार उल्लेख) होता | भी राजा, प्रधान आदि अधिकारी हैं, इनमें स्त्री- है। प्रारंभिक दशामें जैसी कविताएँ होती हैं उसी पुरुष श्रादि भेद हैं, इनके अलग अलग रंग हैं। प्रकारकी ये ऋचाएँ हैं। यही उनमें समानता है। वे अनेक रूप धारण कर सकते हैं। इसका अन्य के मंत्रोंसे अथर्ववेदक मंत्रोंका साम्य औरभी उदाहरण अथर्ववेद के ५ वे कांडके २३ वे सूक्त में है । वह यों है कि अक्सर इनका अर्थ जानबूझ- है। इस सूक्तमें अत्यंत सूक्ष्म रोग-जंतुके प्रति- कर गूढ़ और दुर्गम रखा जाता है। ऐसीही एक कूल निम्नलिखित ऋचाएँ हैं- गूढ़ ऋचाका एक उदाहरण अथर्व. ६.२५ में है। अस्येन्द्र कुमारस्य क्रिमीन् धनपते जहि । हता इस मंत्रका गंडमाला (कण्ठमाला) से संबद्ध है। विश्वा अरातय उग्नण वचसा मम ॥ २॥ पञ्च च याः पञ्चाशच संयन्ति मन्या अभि। यो अक्ष्यौपरिसर्पति यो नासे परिसर्पति । इतस्ताः सर्वा नश्यन्तु वाका अपचितामिव ॥३॥ दतां यो मध्यं गच्छति तं क्रिमि जम्भयामसि ॥३॥ सप्त च याः सप्ततिश्च संयन्ति |व्या अभि। सरूपौ द्वौ विरूपो द्वौ कृष्णौ द्वौ रोहितौ द्वौ। इतस्ताः सर्वा नश्यन्तु वाका अपचितामिव ॥२॥ बभ्रश्च बभ्र कर्णश्च गृध्रः कोकश्च ते हता॥४॥ नव च यो नवतिश्च संयन्ति स्कन्ध्या अभि । ये क्रिमयः शितिकक्षा ये कृष्णा शितिबाहवः। इतस्ता सर्वा नश्यन्तु बाका अपचितामिव ॥३॥ ये के च विश्वरूपास्तान क्रिमीन जम्भयामसि ॥५॥ अथर्व०६. २५. हतो राजा क्रिमीरणामुतैषां स्थपतिहतः । हतो पाँच और पचास जो कंठके ऊपरी भागमेहतमाता क्रिमिहतम्राता हतस्वसा ॥ ११ ॥