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पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/१८३

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अथर्व १६.५३ अथर्ववेद ज्ञानकोश (अ) १७० अथर्ववेद कुछ वचन के रूपमें है। मान्त्रिक लोग अपने कालो शाश्वो वहति सप्तरश्मिः सहनाक्षी मन्त्रीको रहस्यमय बनाने और उनको एक उलझी अजरो भूरिरेताः। तमा रोहन्ति कवयो विपश्चि- हुई गुत्थीका रूप देने में इन तत्वज्ञान विषयक तस्तस्य चक्रा भुवनानि विश्वा ॥१॥ मन्त्रों का उपयोग करते हैं। यों ही देखने में जो सप्त चक्रान् वहति काल एष सप्तास्य नाभी. भाग गढ़ अर्थसे पूर्ण दिखायी देता है वारीकोसे रमृतं वक्षः। स इमा विश्वा भुवनान्यजत् कालः जाँचने पर वह सोखला शब्दजाल दिखायी देता स ईयते प्रथमो न देवः ॥२॥ है। इस तरह अपनी साधारण कृति पर रहस्य पूर्णः कुम्भोधि काल आहितस्तं वै पश्यामो का आवरण चढ़ा देना और उले गई कृतिका बहुधा तु सन्तः । स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ् स्वरूप दे देना मान्धिकोंका एक व्यवसाय ही कालं तमाहुः परमे व्योमन् ॥ ३ ॥ दिखायी देता है। हाँ, इन तत्वज्ञान विषयक सूक्तोंसे इतना पता जरूर लगता है कि उस समय भूरि रेत, अजर और सहस्त्राक्ष सात किरणों- श्राध्यात्म झालकी बहुत काफी चर्चा हो चुकी थी। वाला काल रूपीजो अश्व है वह ( हमको) ले जा उपनिषद ग्रन्थों में सृष्टिको उत्पन्न करनेवाला देवों | रहा है। उसपर परम निपुण कवि ही सवारी का ईश प्रजापति साना गया है। उसके पश्चात् ' करते हैं। उसके रथके पहिये ही भाजो समस्त यह माना जाने लगा कि शृष्टिको उत्पन्न करनेवाली भुवन हैं ॥ १ ॥ कोई एक अव्यक्त शक्ति है। ये दो सरहको कल्प इस कालके सात चक्र है, सात नालियाँ हैं, नाय और ब्रह्म, तप, प्राण, मन आदि तत्वज्ञानके अमृत ही इसका धुरा है । समस्त भुवनों में यही पारिभाषिक शब्द उपरोक्त सूक्त लिखने के समय प्रेरणा करता है और सदमे श्रेष्ठ गिना जाकर प्रचलित थे और उनका यथेष्ट झान लोगोको उस पूजिन होता है ।।२।। समय था। किन्तु यह कहा जा सकता है कि काल पूर्ण कुम्भकी तरह है। उसे हम अनेक अथर्ववेदके जगदुत्पत्ति विषयक और तत्वज्ञान स्थानोने अनेक रीतियोंसे देखते हैं। वह समस्त विषयक सूक्त भारतीय तत्वज्ञानके उत्कर्षकी किसी भुवनोमें व्याप्त है। वह श्रेष्ठ अंतरिक्षम भी 'काल' विशेष अवस्थाका पता नहीं देते। ऋग्वेदमे ही के नामसे पुकारा जाता है। तत्वज्ञान विषयक जो सूक्त हैं उनमें बीजरूपसे इसी सूक्तकी पाचवीं और छठी ऋचामें निहित उत्तम विचारोंका उपनिषदकाल ही में इसका बहुत सुन्दर वर्णन मिलता है- संवर्धन हुआ । परन्तु यह कहाही नहीं जा सकता कालोमू दिवजनयत् काल इमाः पृथिवीरुत कि ऋग्वेद और उपनिएदामे तत्वज्ञानका जो विकास काले हुभूतं भव्यं चेषितं ह बि तिष्ठते । ४. ।। दिखाई देता है वह अथर्ववेद के तत्वज्ञान विषयक कालो भूतिमसृजत काले तपति सूर्यः । सूक्तोंमें भी दिखाई देता है। डायसेन ( Deu- कालेही विश्वा भूतानि काले चतुर्वि पश्यति ॥६॥ gsen) ठीक कहना है कि ये अथर्ववेद के सूक्त उन विचारों (ऋग्वेद तथा उपनिषद्) के विकास पथमें नहीं ला सकते बल्कि पथके आसपास है । कालके द्वाराही इस पृथ्वी और प्राकाशका निर्माण हुआ है। कालहीमें भूत, भविष्य और इन सूक्तोंमें इतस्ततः बहुतसे गहन तत्वोंका वर्तमानका वास है ॥ ५॥ समावेश हुआ है। घर कहना पड़ता है कि ये कालहीने जमको उत्पन्न किया। कालहीके चमत्कारपूर्ण तत्व इन अर्वाचीन कवियोंके सुन्दर : कारण सूर्य चमक रहा है। समस्त भूतोंके वास मस्तिष्कसे नहीं निकले हैं बल्कि इन्होंने दूसरोके । कालहीके कारण है और कालहीमें चक्षु ( शांख ) परिश्रमसे अच्छा लास उठाया है। उदाहरणके का निरीक्षण है ॥६॥ लिये १४ वे कांडके ५३ वे सूक्तको लीजिये ! काल कालके विषय में इतना महत्त्वपूर्ण प्रतिपादन (समय) समस्त सृष्टिका मूल कारण है। यह करनेके वादही व सूक्तमै उस समयमै हात भिन्न सिद्धान्त तत्वज्ञानीके मुखसे सुनने में भला मालूम भिन्न वस्तुओं और देवताओंका निमेश किया गया होता है। परन्तु उपरोक्त सूक्तको पढ़ते समय है और बारबार यह जताया गया है कि ये सब मालूम होता है कि इसकी भाषा तात्विक नहीं है : वातुएँ और देवता इसी कालसे उत्पन्न हुए हैं। चल्कि किसी गढ़ सिद्धान्तवादीकी है। अथर्ववेदके १२चे कांडके रोहित सूक्तमेची शुद्ध Denssen. Allgemeine Gerchichte तत्त्व ज्ञान बहुतही कम है पर गूढ़ वातौका पाडं- philosophie I, 1, p. 209. ' वर बहुत है । इस सूक्तमें परस्पर असम्बद्ध विषय । अथर्वा० १६.५.