! अथर्व०४.११. अथर्ववेद ज्ञानकोश (अ) १७१ अथववेद बहुत बेसिलसिले लिखे गए हैं । उदाहरणके लिये सायही साथ द्रवस्तवः गूढ़ कल्पनाएंभी भरदी इसी सूक्तके आरंभमें रोहित (अर्थात् सूर्य) को गयी हैं। एक जगह लिखा है कि वृहत् और सृष्टिका उत्पादक ( पैदा करनेवाला) तत्व कहा : रथतर-दो छन्दोंसे रोहितकी उत्पत्ति मानी गयी गया है जिससे पृथ्वी आदि लोकोका निर्माण है। एक दूसरे स्थान में गायत्री छंदको ही अमृत हुन्श्रा। इस तत्व के प्रवल प्रतापको काफी प्रशंसा गर्भ लिखा है । इस प्रकार गूढ कल्पनाओंके अन्य की गयी है। किन्तु उसी स्थान पर पृथ्वीके राजा उदाहरणभी दिये जा सकते हैं। ऐसी ऋचाओंके और स्वर्गस्थ राजा रोहितकी संदिग्ध भाषामें गहन अर्थको समझने का प्रयत्न अवश्यही निष्फल परस्पर तुलना भी की गयी है । बीच बीचमे दिखायी होगा। इस लिये विदर-निजका कथन है कि यह देता है कि उन शत्रुओंको शापभी दिये गए हैं जो कमीभी अाशा न करना चाहिये कि अथर्ववेद के गऊको पैरोंसे ठुकराते हैं या जो सूर्यकी ओर मुँह चौथे कांडके ग्यारहवे मुक्त के जैसे अन्य सूक्तों में कर मूत्रोत्सर्ग करते हैं। आगे चलकर १३२ गहन तात्विक सत्यका पता नहीं लग सकेगा। कांडके सृतीय सूक्तकी कुछ ऋचाओं में रोहितको उपरोक्त सुत्तों में वृरको विश्वोत्पादक और विश्व सर्वश्रेष्ठ देवता मानकर उनकी प्रशंसाकी गयी। रक्षक कहा गया है और उसकी प्रार्थनाकी गई है। हैं। इस अंशके करुणरसपूर्ण वर्णनको पढ़कर अनड्वान दाधार पृथिवीमुल धामनडान् दाधा- वरुण सूक्तकी याद आ जाती है। परंतु उन सूक्तो रोर्वन्तरिक्षम् । मनड़याल दाधार प्रदिशः पडुरि की ऋचाओमें बारबार जो टेक प्राधी है उलमै जवान विश्वं भुवनमा विवेश ॥ १ ॥ ब्राह्मराको पीड़ा देने वाले का नाश करने की प्रार्थना रोहितसे की गयी है। अनड्डह (वृषभ) द्वारा पृथ्वी और स्वर्ग धारण य इमे द्यावापृथ्वी जजान यो दापि कृत्वा भुब- किया गया है। अनडुहने (प्राची आदि) महा नानि बस्ते । यस्मिन् क्षियन्ति प्रदिशः पड़र्वोर्याः दिशा ओर छः उर्वियोंको धारण किया है और पतङ्गो अनु विचाकशीति तस्य देवस्य । क्रुद्धस्यै इसीसे समस्त विश्व व्याप्त है ॥ १ ॥ तदागी य एवं विद्वांस ब्राह्मणं जिनाति । उद्वेश्य यही नहीं, इस वृषभको लाकर इंद्रादि दिराज रोहित प्रक्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुश्च पाशान् ॥ १॥ देवताओको श्रेणी में रख दिया है। "अमवहान दूहे" यस्माद् वाता ऋतथा पबन्ते यस्मात् समुद्रा वृषभ दूध देता है'; "अस्य यज्ञः पयो दक्षिणा धि विक्षरन्ति तस्य देवस्य । 010॥२॥ दोहो अस्य"-'यशकी दक्षिणाही उसका दोहन यो मारयति प्राणयति यस्मात् प्राणन्ति भुव: और उसका दूधही यज्ञ है': “यो वेदानडु हो दोहाम् नानि विश्वा तस्य 100॥३॥ समानुपदस्वतः। प्रजांच लोकं चानाति"-'कान- यःप्राणेन द्यावापृथिवी तर्पयत्यपानेन समुद्रस्य इहके इन सात दोहनको जाननेवाले संतति और जठरं यः पिपति तस्य 010॥४॥ अथर्च० १३. ३. स्वर्ग-मुखको पाते है।' आदि आदि वर्णनोंमें तो जिसने इस पृथ्वीका निर्माण किया, जिसने कोईभी विशेषता दिखायी नहीं देती । वृषभके समस्त भुवनोंको अपनी चादर बनाया, ऐसे देव- | इस वर्णन, अथर्व०६.४पूत वृधमका जो वर्णन ताको कष्ट देनेवाला अर्थात् जो यह सब जानने- है, उनमें कोई विशेष महत्व नहीं है। इस ६४ वाले ब्राह्मणको कष्ट देता है, हे रोहित, उसका सूक्तमै वृषभकी प्रशंसाकी गयी है। समस्त देव- पीछा कर, उसका नाश कर दे, ब्राह्मणके शत्रुको ताओको अस्तित्व उसी में बतलाया गया है और अपने पाशमै बाँध कर रख ॥ १॥ यहभी कहा गया है कि सृष्टिके श्रारंभमें वह जल जिसके कारण ऋतुओंमें साफ वायु बहती है, · रूप था। यह वृषभ और कोई नहीं था बल्कि जिसके कारण समुद्र सब दिशाओमें बहते हैं उस यज्ञ मेंदी जानेवाली बलि था। कोई यह कहे कि क्रुद्ध देवताका........॥२॥ इस झूठे तत्वज्ञान और मूढ़ श्रावरणकी क्या जो जीवको हरण करता है और जीवनदान आवश्यकता थी। इसका उत्तर यही है कि इसकी भी करता है, जिसके कारण समस्त भुवनीका नित्य श्वहारमें चावश्यकता होती थी। हमारे अस्तित्व उस क्रोधित देवताका......३० ॥३॥ कथनको पुष्टि भागे दिये हुए उद्धरणोंसे होगी। जो अपने प्राणके बलपर स्वर्ग और पृथ्वीको इसमें गौत्रय माहात्म्य वर्णित है । आनंदित करता है जो अयानके द्वारा समुद्रको यया द्यौर्यया पृथिवी ययापो गुपिता इमाः॥४॥ भर देता है, उस क्रोधित देवताको इ० ॥ ४॥ शतं कंसाः शतंदोधारः शतं गोसारो अधि पूछे इस प्रकारको रोहित-प्रशस्ति (प्रशंला) के अस्याःये देवास्तस्यां प्राणन्ति ते वशां विदुरेकधा ।।
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