अथर्ववेद ज्ञानकोश (अ) १७३ अथर्ववेद में यह प्रतिपादित किया गया है कि मनुष्य उत्पत्ति अजातोहतो अक्षतो ब्रह्मतत्व पर पूर्णरूपेण अवलम्बित आध्यात्मिक ध्यष्ठा पृथिवीमहम् ॥ ११ ॥ और जड़ घटको के संयोगसे हुई हैं। परन्तु विंटर त्वजीतास्त्वयि चरन्ति मास्त्वं निट्ज़की राय है कि उक्त सूक्त से कुछ महत्वपूर्ण बिभर्षि द्विपदस्त्वं चतुष्पदः । अर्थ नहीं निकलता। जिसतरह सदाभूठ बोलने तवेमे पृथिवि पञ्च मानवा येभ्यो ज्योतिरमृतं वाला मनुष्य अपनी बोत पर लोगोंका विश्वास मत्येभ्य उद्यन्त्सूर्यो रश्मिभिरातनोति ॥ १५ ॥ जमनेके लिये कभी कभी सच बोल देता है उसी भूम्यां देवेभ्यो ददति यहं हव्यमरंकृतम् । तरह गूढवादी को अपने इधर उधरसे मांग कर भूम्यां मनुष्याजीवन्ति स्वधयान्नेन माः । लाए हुए तत्वज्ञानको लोगोंकी नज़रोंमें ऊँचा सा नो भूमिः प्राणमायुर्दधातु अँचवाने के ख्यालसे, अपनी श्रेष्ठ रचनानोमें जरदष्टिं मा पृथिवी कृणोतु ॥ २२ ॥ बैठा देना पड़ता है। इसकी बानगी १वें यत् ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु । काण्डके व सूक्तमै मिलजातो है। इसमें अग्नि, मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम् ॥३५॥ वरुण, मित्र, विष्णु, भग, विवस्वान, सविता, धाता, यस्यां गायन्ति नृत्यन्ति भूम्यां माव्य लबाः । पुष्पन और त्वष्टा श्रादि देवताओंकी सिर्फ सूची युध्यन्ते यस्यामाक्रन्दो यस्यां वदति दुन्दुभिः। दी है और इनसे प्रार्थना की गयी है कि हमको सा नो भूमिः प्रणुदतां सपत्नान- पाप से बचावें। सपनं मा पृथिवी कृणोतु ॥ ४१ ॥ अतः इस कथाकी रचना को न तो काव्य ही मल्वं विभ्रती गुरुभृद् भद्रपापस्य निधनं तितिक्षुः । कह सकते हैं और तत्वज्ञान ही। इस रचनाकी . वराहेण पृथिवी संविदाना सूकराय विजिहीते- अपेक्षा सुललित रचनाका एक सूक्त अथर्ववेदहीमै मृगाय ॥ ४ ॥ है। इसमें कुछ ऋचाएँ पृथ्वीके उत्पत्तिके संबंध भूमे मातर्नि धेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम् । हैं किन्तु इसमें कोई गूढ़ तात्विकज्ञान भरा हुआ संविदाना दिवा कवे श्रियां मा धेहि भूत्याम६३ नहीं है। अतः इसे केवल काव्यमय कह सकते है। अथर्व इसे पृथ्वी सूक्त कहते हैं। यह अथर्व वेद के १२ वे सत्य, ऋत, दीक्षा, तप, ब्रह्म और यश ही काण्ड का पहला ही सूक्त है । इसकी ६३ ऋचाओं | पृथ्वीको धारण करते हैं। वह हमारी भूत और में पृथ्वीको समस्त ऐहिक वस्तुओके धारण करने भविष्यकी स्त्री है। वह हमारे लिये विस्तीर्ण और उनका संरक्षण करने वाली माना है और लोकोंकी व्यवस्था करे॥१॥ उसकी प्रार्थना की है कि पृथ्वी समस्त संकटोसे जो पहले समुद्र में जल (रूप) थी, मनस्वियों वचाये और कृपारखे । भारतवर्षके प्राचीन धार्मिक (ऋषियों) ने जिसका भिन्न-भिन्न रूपोंसे अनु- काव्य ग्रंथों में भी बहुत सुन्दर रचनाएँ देखने को , सरण किया, जिसका उन्नत हृदय आकाशमें सत्य मिलती हैं । उदाहरण स्वरूप उक्त पृथ्वी-सूक्तकी से ढका हुआ और अमर है, वह पृथ्वी हमें तेज कुछ ऋचाएँ नीचे देते हैं- और उत्तम राष्ट्रीय बल प्रदान करे ॥८॥ सत्यं बृहहतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यशः पृथिवीं जिसकी माप अश्विनों द्वारा हुई है, जिसपर धारयन्ति । सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरु लोकं विष्णुने पदार्पण किया है, जिसको इन्द्रने अपने पृथिवी नः कृणोतु ॥१॥ लिये शत्रु रहित बना दिया है, वह पृथ्वी, माता याणवेधि सलिलमन आसीद् यां मायाभिरन्व- जैसे अपने बच्चोंका दूध देती हैं, वैसे ही हमें चरन् मनीषिणः। यस्या हृदयं परमे व्योमन्स: दूध दे ॥ १० ॥ त्येनावृतममृतं पृथिव्याः । सानो भूमिस्त्विर्षि यलं हे पृथ्वी, तेरे गिरि ( पहाड़ ) हिमाच्छादित राष्ट्रे दधातूत्तमे ॥ ८ ॥ पर्वत, जङ्गल आदिका कल्याण हो । पीली, काली, यामश्विनावमिमातां विष्णुर्यस्यां विचक्रमे। विषरूप और ध्रुव पृथ्वी, इन्द्र द्वारा संरक्षित है, इन्द्रो यो चक्र आत्मनेनमित्रां शचीपतिः। सानो पर मैं श्रदत और अक्षत (बिना किसी विग्रहके) भूमिर्विसृजतां माता पुत्राय मे पयः ॥ १० ॥ खड़ा हूँ ॥११॥ गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोरण्यं ते पृथिवि तुझसे पैदा हुए मर्त्यलोग तुझपर घूमते फिरते स्योनमस्तु। हैं; तू द्विपाद (दो पैरवाले ) और चतुष्पाद (चार वधं कृष्णां रोहिणीं विश्वरूपा पैरवाले ) का पोषण करती है । हे पृथ्वी ! तेरी ये ध्रुवां भूमि पृथिवीन्द्रगुप्ताम् । मानव जातियाँ मर्त्य (मरणशील) हैं। इसके लिये
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