पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/१८७

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अथर्ववेद ज्ञानकोश (अ)१७४ अथर्ववेद सूर्य उदित होता है और अपनी किरणोंसे अमर क्रियाएँ जिस ग्रन्थों में वर्णित हों, उनकी चर्चा ज्योतिकी वृद्धि करता है ॥ १५ ॥ करनेके बराबर है। किन्तु ऋग्वेद और सामवेद पृथ्वीपर देवताओंके प्रीत्यर्थ यज्ञ करते और की संहिताको एक तरहका साम्य है । वह यों है उत्तम हवि देते हैं। पृथ्वीपर मर्त्य मनुध्य अपनी कि इनके सूक्तोकी रचना किसी विशिष्ट कमौके इच्छाके अनुसार अन्न ग्रहणकर जीवन विताते प्रयोगों के लिये नहीं हुई है। ऋग्वेदका विषय हैं । वही भूमि हमें प्राण, आयु और स्वास्थ विभिन्नता ही इसका प्रमाण है। यधपि ऋग्वेदके शरीर दे ॥२२॥ बहुतसे सूतोंका उपयोग यज्ञकर्मों के लिये किया हे भूमि ! तुझे जोतनेसे जल्दी ही अन्न उत्पन्न : जाता है और अथर्ववेदकी ऋचाएँ और मन्त्र हो। हे पायक (भूमि ) लेग हृदय मुझे धारण विधियों और अभिचार कर्मों में कहे जाते हैं फिर करनेसे दुखी न हो ॥ ३५॥ भी यह नहीं कहा जासकता कि भारम्समें इनकी जिस पृथ्वीपर मर्त्य मनुष्य जोरसे चिमाकर रचना किसी विशिष्ट कर्म में प्रयुक्त करने के लिये गाते हैं और नाचते हैं। जिसएर वे युद्ध करते हुई हो। अधिक से अधिक हम यह कह सकते हैं समय दुन्दुभि बजाकर कठोर शब्द करते हैं वह कि इनदोनो घेदोंकी संहिताओंकी रचनाका उद्देश्य भूमि हमारे शत्रुओंको हटादे और हमें शत्रुसे रहित : साहित्यिक था किसी तरह किसी मौकेपर कहने रहने दे॥४॥ के लिये इनका मन्त्रोके रूपमे विनियोग किया गया। मूर्ख और विद्वान दोनों को धारण करनेवाली ऋग्वेद सूक्तोकी रचना यक्ष के लिये प्रयुक्त भद्र और अभद्र (पाप) के निरसनकी उपेक्षा करनेके विचारसे नहीं हुई। परन्तु अथर्ववेद करनेवाली पृी, मुग और शकर-दोनों ही के अवश्य ही यज्ञकी दृष्टिले रचित दिखाई देता है। लिये भ्रमण करती है ॥ ४॥ श्रौतकर्म में अथर्ववेदका स्थान बहुत ही मनोरंजक हे माता पृथ्वी ! मुझे अच्छी जगहमें सुखसे था। किन्तु यजुर्वेदकी साधारण जानकारीके रख । हे कवि ? स्वर्गले मेरा नाता जोड़कर मुझे बिना इसका ज्ञान नहीं हो सकता। यश और धन दो ॥ ६३॥ अब वेदांग भूत जो वाङ्मय (साहित्य) सूच यह सूक्त तो ऋग्वेद संहितामें सुन्दर मालूम है उसका विवेचन आगे दिया जाता पड़ता है। इससे स्पष्ट है कि अथर्ववेद संहिता ३ वैतान सूत्र यद्यपि ऋग्वेद की अपेक्षा हेतुकी एकरूपता है फिर अथर्व साहित्यमें स्थान-पांच अन्थो श्रथर्ववेद भी इसमें बीचबीचमें अनेक प्राचीन काव्योंके की धर्मविधि ( संस्कार ) कही गई है। इन ग्रन्थों खण्ड नज़र आते हैं। ऋग्वेदकी तरह इसमें भी को श्रुतिके समान ही महत्व दिया गया है। वे विलकुल निकृष्ट तथा भद्दी काव्य रचनाके साथ निम्नलिखित ग्रन्थ हैं - (१) कौशिक सूत्र अथवा ही साथ प्राचीन युगके भारतीय काव्योंकी नाई संहिता कला, (२) वैतान कल्प अथवा सूत्र कुछ अमूल्य रत्न भी दृष्टिगोचर होते हैं । भारत (३) नक्षत्र कल्प, और (५) गिरल कल्प वासी आयौँके पुरातन काव्यको सुन्दर कल्पनाओं अथवा अभिचार कल्प। का ज्ञान प्राप्त करने के लिये ये दोनों ग्रन्थ विचार प्रारम्भ ही से अथर्ववेद की नौ शाखाये हैं। णीय तथा महत्वपूर्ण हैं। इन नौ शाखाओं में से चार शाखाओंके उपरोक्त अबतक ऋग्वेद और अथर्ववेदका साहित्यिक : पाँच ग्रन्थ हैं। उन चार शाखाओको (१) शौन- दृष्टिले विवेचन किया गया है और आराम कुली : कीय, (२) अक्षारा, (३) जलद. (४) ब्रह्मपद पर लेटे-लेटे पड़नेकी मनोरंजक सामनी सामने कहते हैं। (अथर्व वेदस्य नवभेदा भवन्ति । तत्र रखी गयी। यजुर्वेद और सामवेदके सम्बन्धमें चतसृषु शाखासु शौनकादिषु कौशिकोऽयं संहिता कुछ योही लिखना भामूली काम नहीं है बल्कि विधिः अथर्ववेद पद्धति-उपोद्माव) दो स्वतंत्र शास्त्रोका सिर-फोड़ अध्ययन है। इनमें इसकी पैन्पलाद नामकी शाखा सबसे अधिक से पहला 'यज्ञ' से सम्बन्ध रखता है और दूसरा परिचित है। कौशिक तथा वैतान सूत्र इस सङ्गीतसे । सामवेदको सूक्तोका संग्रह कहनेको शाखा में नहीं हैं, क्योंकि पप्पलादके पूरे पूरे मन्त्र अपेक्षा रागोंका संग्रह कहना उचित होगा। यजु- उतारे हुए हैं और प्रतीकोंके अवतरण नहीं लिये बंद 'यज्ञशास्त्र' है। हम जिसे वैदिकधर्म अथवा गये हैं। शौनक स्था देवर्षिके मापन विषयक श्रौतधर्म कहते हैं उसका अभिप्राय यजुर्वेदात्मक मतोका विरोध किया गया है। यह भी पत्र है धर्म है । यजुर्वेदका वर्णनकरना मानो यज्ञ आदिकी कि ५,८६,८७ में कौशिक सूत्र शौनकीय शाखाके