अथर्ववेद ज्ञानकोष (अ) १८१ अथर्ववेद ध्यान देनेसे उपरोक्त सिद्धान्तकी ही पुष्टि होतीहै। है । जहाँ अाज पहली ६ कंडिका हैं, उसी स्थान अत: यह एक परिशिष्ट है और अथर्व परिषिष्टाङ्ग पर वे पहले नहीं थीं ! यजुः संहिताके श्रौत सूत्रके १४वे में कुछ विस्तारसे दिया गया है। इससे | ग्रंथका प्रारम्भ तो दर्श पूर्णमासका उल्लेख करनेके यहतो सिद्ध हो ही जाता है कि इस संग्रहकी पश्चात् किया जाता था। ब्लूमफील्डका मत है कि भाषा तथा शब्दरचनामें कोईभी अशोभनीय बात सदाका प्रचलित नियम विचार करही वे वहाँ नहीं है। कंडिका १३७ का श्राज्य तन्त्र दर्श पूर्ण- | रक्खी गई होगी। इस मतकी पुष्टि के लियेभी प्रमाण मास विधिके एक भागका विस्तृत वर्णन है। । 'व्रतानि व्रतपतये ऋचाका प्रतीक ६-१८ में उसमें केवल वेदी बनानेके नियम तथा लक्षण दिया है और यह सकल पाट ४२-१६ में है। इस आदि विषयोका अधिक उल्लेख है। ६, २६-३० से यह प्रतीत होता है कि कौशिक तथा वैतान में इस प्रकार लिखा है, 'इमा दर्श पूर्ण मासौ ! सूत्रके सदाके नियमके अनुसार ४२.१६ और व्याख्यातौ । दर्श पूर्ण मासाभ्यां पाक-यशः'। इस उसके बाद ६.१८ आना चाहिये। किन्तु एक से १३७-४३ के 'व्याख्यातं सर्व यशियं तन्त्रम की दूसरो उदाहरण है जो इस प्रकार नहीं घटाया श्रावश्यकताही नहीं रह जाती । केवल सूत्र भाषा जा सकता। कौशिकके 'अच्युता द्यौरिति' का की दृष्टि से १३७-३० की २. ४१ के 'अग्निभूम्याम् प्रतीक ३५.१२ में तथा सकल पाठ १-२ में है। इति विसृभिः' से तुलना करने पर यह ध्यानमें । अतः तेरहवें अध्यायके मन्त्रोंका उपयोग इस श्रावेगा कि १३७वीं कण्डिका १.६ के बादकी है। प्रकारही किया देख पड़ता है कि किसी समय १३७-३० में तीनो ऋचायोंकी प्रतीक प्रारम्भसे वह एक स्वतन्त्र संहिताके ही रूपमें रहे होंगे। अन्त तक हैं। यहाँ पर यह लिख देनाभी बड़ा 'प्रयच परशुइति दुर्भाहाराय दात्रं प्रयच्छति' श्रावश्यक है कि दर्श पूर्णमास तथा प्राज्य तन्त्र (५,२४ ) के पश्चात् ८,११ में इसी अर्थ का परि- का वर्णन करते समय केशव, दशकर्माणि, अथर्वण भाषिक सूत्र कुछ भिन्न भाषामें दिया हुआ है। इससे पद्धति और अंत्येष्टि शैलियों में भिन्न भिन्न अवत- यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि १-६ अध्याय अगले रणोंको आपसमें मिला दिया है। अध्यायके श्राधारपर अथवा उनसे मिलाकर नहीं इससे स्पष्ट है कि १३वे तथा १४ वें अध्याय रचा गया है । चाहे ये अध्याय किसी दूसरे ग्रंथके ग्रंथके अन्तिम स्तर हैं। रहे हो अथवा इसी ग्रंथ का एक पृथक पाठ होगा पहले अध्यायके शुरूकी ६ कंडिकाओंकी और यह किसी पृथक ही ग्रंथकार द्वारा रचा बातही बिल्कुल निराली है। १.८ तक बिल्कुल गया होगा। कण्डिका ५२.५३ के बादही मुख्यसूत्र साधारण पारिभाषिक सूत्र देनेके पश्चात् ६-२१ के अनन्तर, किन्तु गृह्य अध्यायके पहले ही उनका तक विशेष परिभाषायें हैं । १-- तकमें ग्रंथके मूल योग्य स्थान रहा होगा। किन्तु इस भाग की अध्याय दिये है । ६-२१ तकमें देव तथा पितरोकी। इतनी ही विशेष बातें देखकर कोई सिद्धान्त पूजा का भेट दिया गया है। यही शैली सूत्र ग्रंथों निकाल लेना ठीक नहीं मालूम होता। की है । प्रथम ६ कंडिकाओमें केवल दर्श पूर्णमास कौशिक अथर्व तथा गृह्यसूत्रोंका सम्बन्ध-उपरोक्त विधिकाही वर्णन है। ६-२१ तककी परिभाषाओं वर्णनके अनुसार मुख्य अथर्व सूत्रोंका श्रारम्भ ७ का प्रथमकी ६ काण्डिकाओंकी अपेक्षा अधिक वीं कंडिकासे होकर ५३ वीं कंडिकामें इनकी विस्तृत-रूपसे वर्णन होना चाहिये। इसमें पितरों समाप्ति हुई है, किन्तु बीचके ४२, ५ से ४५ तक की किसीभी पूजाका उल्लेख नहीं आया है। बहुत | का विषय ही बिल्कुल भिन्न है। इसकी भाषा सम्भव है कि इन परिभाषााका सम्बन्ध ग्रंथके भी गृह्यसूत्रके समान है किन्तु इन अथर्व सूत्रोंमें अन्तिम भागको उद्देश करके हुआ होगा । इस अथर्ववेद कालके श्रायुष्यक्रम की स्पष्ट देख कथनके प्रमाणमें ११ अध्याय ध्यानसे देखना पड़नेवाली बातें वर्तमान हैं। बारहवें अध्यायके चाहिये। अन्त तक बची हुई कंडिकाओंमें अथर्व मन्त्रोके इस प्रकार मानने में एक खास अडचन यह आधार पर अथर्वणकी दृष्टिसे सदाकी भाँति पड़ती है कि दर्श पूर्णमास विधिके बादही विशेष गृह्य आचरणोंका वर्णन आया है।. अथर्व सूत्र विस्तृत नीतिवाली परिभाषाओकी ३ कण्डिका बिल्कुल ही अल्पाक्षर तथा सूत्रमय भोषामें लिखा आई हैं । कदाचित वह वहाँ इसी हेतुसे रक्खी गया है। इसमेके श्राचार भी बिल्कुल पुराने गयी हैं और प्रथम कण्डिका -२१ के अधिकार तथा स्वतन्त्र हैं। शब्द संग्रह तथा शब्द समृद्धि का उपयोग बहुत अध्यायों तक नहीं किया गया ! की दृष्टिसे इनकी भाषा ध्यान रखने योग्य हैं । ।
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