पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/१९५

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होगे ! अथर्ववेद ज्ञानकोष (अ)१८२ अथर्ववेद अथर्व संहिताके अर्थज्ञातके लिये इसका बहुत रूप आया है किन्तु अन्य स्थानों पर 'श्राचामयति' मूल्य है। शेष ग्रन्थोंकी अपेक्षा इसमें विशेषता आया है। इसी प्रकार 'इ' धातुके वर्तमानकाल यह है कि अथर्वसंहितासे परेके मन्त्रीका अव वाचक कृदन्तका पुल्लिङ्ग प्रथमा एक वचन 'जुह्वत' तरण इसमें शायद ही कहीं अाया हो। अथर्व | अथर्वसूत्र में दिया है किन्तु गृह्यसूत्रमें 'जुह्वन' सूत्रकी अपेक्षा गृह्यसूत्रकी भाषा बहुत ही अस्पष्ट दिया हुआ है। इससे तथा अन्य प्रमाणोंसे भी है, और इन दोनोंका भेद दिखानेके लिये बहुतसे यह बात स्पष्ट है कि अथर्व तथा गृह्यसूत्रोंकी पारिभाषिक प्रमाण भी हैं। दोनोको पढ़नेके भाषा भिन्न हैं। गृह्यसूत्रकी भाषा विस्तृत तथा पश्चात् पाठकोंका यह मत हो सकता है कि अन्तिम सरल है किन्तु अथर्वकी भाषा संक्षिप्त तथा पारि- संस्करणके समय आधुनिक संस्करणके किसी भाषिक स्वरूपकी है। गृह्यसूत्रोंको भाषा अथर्व एक सामान्य गृह्यसूत्र में अथर्वसूत्र मिला दिये गये सूत्र और तेरहवें अध्यायके वीचकी भाषाके समान है। यह पहले कहा ही जा चुका है कि इन गृह्यसूत्रों में फौरन ही ध्यानमें आनेवाली | तेरहवें अध्यायकी भाषा करीब करीब परिशिष्टकी एक विशेषता यह है कि अथर्ववेद में स्थान न पा भाषाके समान है। सकनेके कारण सकल पाठके अनेक मन्त्र इनमें यह सदा ध्यानमें रखने योग्य बात है कि अनेक बार पाये हैं। बहुतसे स्थानोंमें तो एक ही अथर्वसूत्रमें अथर्ववेदके १६ वें कण्डिकाका मन्त्र प्रतीक तथा सकल पाठ एक साथ ही आते हैं बिल्कुल ही अवतरण नहीं लिया गया है क्योकि ६२ में प्रतीक सकल पाठके बाद आया है । ४२, कौशिकसूत्र और अथर्वके 28 वे कण्डिकामे बहुत १५. १७, ६२, २०. २१, ६८.६.१०, ६८.२५. २६, ७२, १३, १४,६०. २५, ६१.१ आदिमें प्रतीक ब्लूमफील्डका मत है कि उपरोक्त मत बिल्कुल सकल पाठके पहले आये हैं। कभी कभी सकल ही अवाधित रहना कठिन है तथापि आगे दी हुई पाठके मन्त्र तथा अथर्वणकी प्रतीक साथ आते बाते स्पष्ट ही है। कौशिक सूत्र बादके सूत्रोके हैं। जैसे ६ २: ७१. ६, ७२. १३, ७८. १०, १३३. समयके हैं। उनमें भिन्न प्रकारके स्तर हैं जो २। बहुतसे मन्त्र विषय अथर्ववेदसे बिल्कुल विशेष निपुणतासे नहीं मिलाये गये हैं। उन प्रत्येक स्वतन्त्र भी हैं। स्तरका विशिष्टरूप भिन्न भिन्न लेखकोके भिन्न गृह्यसूत्रकी प्रतीके जिस रीतिसे दी गई हैं भिन्न कालके कारण हो होगा । विषय, भाषाशैली, उनके अवलोकन उनकी भाषाशैलीका शान हो तथा परिभाषा इत्यादिमें अन्तर होनेके कारण ही जाता है। ६४. २७ मे 'इति सूक्तेन' आया है यह बात सिद्ध होती है कि अथर्व तथा गृह्यसूत्रोंमें ५३. १३ में 'इति अनेन सूक्तेन', ५४. ५ में इति भेद हैं। तेरहवे तथा चौदहवें अध्यायोंकी रचना एतेन सूक्तेन ६७, १५ में 'इति एतैत्रिभिः सूक्तः', पूर्ण ग्रन्थके बादकी है और बहुत प्रयत्न करके भी ६५, 8 में 'इति सूक्तनका उल्लेख हुआ है । १,२० यह बात छिप नहीं सकी। पहले अध्यायकी के दो प्रतीकोंके पहले 'उभयो' शब्द व्यर्थ ही लगाया पहली ६ कण्डिकायें इस ग्रंथके आखिरी स्तर गया है। अथर्वसूत्र में इस प्रकारके शब्द करीब की होगी। करीब नहीं पाये हैं। उसके विरुद्ध केवल तीन कौशिकस त्रका उसकी संहितासे सम्बन्ध-अथर्ववेद उदाहरण मिलते हैं। ६. १, ३५. १२, में 'इतिएक' की नौ शाखायें थी। अथर्ववेदका अध्ययन (ऋक् ) का अर्थ इस प्रकार दिया है कि वहाँके करनेवाले विद्यार्थियोंको पहले इस दृढ़ साम्प्रदा- प्रकृत सूक्तोंकी एक ऋचा कही जाय । ६, २८ का यिक विश्वासका ध्यान रखना पड़ता था। इस इति सः सर्वेण सूक्तेन' अधिक मिलाया हुआ साम्प्रदायिक विश्वासके मूल आधार चार हैं- देख पड़ता है। किन्तु तो भी इस विषयमै यो (१) दो चरण-व्यूह। पहला चरण-व्यूह शुक्ल कहा जा सकता है कि गृह्यसूत्रोंमें बड़े सूत्रोंका यजुर्वेदका पाँचवाँ परिशिष्ट है और उसके पहले उल्लेख होनेके कारण उसमें की विशिष्ट ऋचाका अध्यायमें अथर्ववेदकी शाखायें दी हैं । दूसराचरण विस्तृतरूपसे उल्लेख करना आवश्यक है । तथापि व्यूह अथर्ववेदका ४६ वाँ परिशिष्ट है और उसमें यह बात ध्यान देनेकी है कि उपरोक्त स्थानोमे इस विषयके बारेमें थोड़े विचार किया गया बहुतसी जगह ऐसे बड़े सूक्तका उल्लेख नहीं है। (२) पाणिनीकी अष्टाध्यायी, महाभाष्यमें आया है। तथा अन्य पाणिनीसे परिचित साहित्योंमें प्रसंग अथर्व सूत्र में श्रा+चम् धातुका 'आचमयति' | वश इन शाखाओंका उल्लेख आया है । (३) -