पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/२१७

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। अद्वैत ज्ञानकोष (अ).१६४ अद्वैत को देदी गई जिस पर आगे चल कर शान्तनु ! है कि आजकल प्राप्त होने वाले बादरायण सूत्रों में मोहित हो गये थे। इधर यह अप्सरामी श्राप जो बादरायण सम्बन्धी उल्लेख है उनसे पता नहीं मुक्त होकर स्वर्गको पधारी क्योंकि ब्रह्माका श्राप चलता कि ये बादरायण सूत्रोके कर्ता थे या नहीं। था कि दो मानवोंको उत्पन्न करके वह श्रापसे : इस सूत्र-ग्रंथमें अनेक वेदांत विरोधी मतोंका मुक्त हो जावेगी। खण्डन है। फिर भी इस विषय का मत पूर्णतया अद्वैत-'विश्व' (संसार ) का स्पष्टरूप जताने आज निश्चित नहीं है। इन सूत्रों और भगवद्गीता के लिये जिस विचारधारा का अवलंब किया गया पर बहुतसे वेदांताचार्योंने अनेक भाष्य किये और है उसीका भारतीय नामकरण अद्वैत है । इसी को अनेक मत स्थापित किये। इनमेंसे शांकर मत शास्त्रीय (शास्त्रविद् ) भाषामें 'केवलाद्वैत" कहते | 'केवलाद्वैत' मत है। हैं । इसका समर्थन करनेवाले कहते हैं कि यह पश्चात्य पण्डित ए० गौहने अपने 'उपनिषदके विचारधारा या तत्वज्ञान अन्य भारतीय तत्वज्ञानों तत्वज्ञान' नामक ग्रन्थ में यह सिद्धांत प्रतिपादित की अपेक्षा श्रेष्ठ और पूर्ण है। एक बात यह भी है किया है कि प्राचार्य बादरायणने वेदांत सूत्रों में कि भारतवर्ष में इस विचार सरणी को माननेवाले जिस "अद्वैत” मत की स्थापना की है उसी भी बहुत हैं। इस विचारधाराका नाश कर्नेके परंपरागत प्राप्तमतका पुनरोद्धाटन शंकराचार्यने लिये वादमें विशिष्टाद्वैत' 'शुद्धाद्वैत और 'द्वैत' ! 'प्रस्थानत्रयो' पर भाष्य लिखकर किया। जर्मन आदि अनेक मतसाम्प्रदाय उत्पन्न हुए और कुछ पण्डित जार्ज थोबोने अपने ग्रंथ-वेदान्त सूत्रोपर समय तक बड़ा जोर वाँधे हुए थे, परन्तु अद्वैत शंकर भाग्य' की प्रस्तावनामें यह सिद्ध करनेका तत्वज्ञान का प्रभाव केवल भारतवर्षही पर नहीं प्रयत्र किया है कि शंकराचार्य द्वारा 'अद्वैत' मतकी किन्तु संसारके सर्वमान्य विचारोंके विकासपर स्थापना होने के पूर्व अर्थात् सूत्ररचना कालसे भी पड़ रहा है। ऋगवेदके १०वे मण्डल में तथा | लेकर अद्वैत मत का प्रस्थापन करनेके कालतक उसके उत्तरकालीन सूक्तोंमें दिखाई देनेवाले तत्व बौधायन आत्रेय, आश्मरथ्य, औडूलोभी. काष्र्णा- ज्ञान विषयक प्रश्नों के विचारों का उपनिषदों में | जिनि, काषकृत जोगिनी, बादरायण आदि अनेक किस प्रकार विकास हुआ, वैसेही इन ग्रंथोंमें वैदिक मार्गों के प्राचार्यों में जीव और ब्रह्मको पूर्ण इतस्ततः विक्षरा हुआ तत्वज्ञान 'अद्वैतादि” एकताके विषय में तीव्र मतभेद था (वेदांत सूत्र मतोंकी अन्तिम सीमापर किस तरह जा पहुँचा अ० १, पाद ४, सूत्र २०-२२)। और भी बादरायण इत्यादि प्रश्नोंका इतिहास बहुतही मनोरंजक है। सूत्रों में दिग्दर्शित होनेवाला सत्यमत, शंकराचार्य यदि संक्षिप्तमें भारतीय तत्वज्ञानका इतिहास के 'अवत' मतसे नहीं मिलता वल्कि रामानुजा- ध्यानमें लाना हो तो यह दिखाई देगा कि 'उपनिषद्' चार्य द्वारा बादमें प्रस्थापित 'विशिष्टाद्वैत, मतसे ग्रंथही मूल (जड़) है और केवल यही ऐसे विषयों ही मिलता है । पर तात्विक ग्रंथ है। उपनिषदों में लिखित तत्वज्ञान आधुनिक पण्डितों में तो इसविषयमें भी बहुत छाँटकर एक जगह स्पष्ट दिया हुआ नहीं है इस मतभेद दिखाई देता है कि 'अत' मतका अत्यन्त लिये सृष्टिकी उत्पत्ति जैसे महत्वपूर्ण प्रश्नोंपर भी महत्वपूर्ण भाग 'मायावाद' मूल प्रस्थानत्रयीमें ही कोई अबाधित सिद्धान्त साफ साफ नज़र नहीं दिखायी देता है या शंकराचार्य ने अपनी अलौकिक आता । उपनिषद्के तस्य वेदांत सूत्रोप्ने अधिक बुद्धि के बलसे इसको ढूंढ़ निकाला और अपने स्पष्ट दिखायी देते हैं। कुछ सूत्रोका समावेश : अद्वैत मतमें जोड़ दिया। कोलबुक (मायावाद 'दर्शनी में हुआ है। सब 'दर्शन' उपनिषन्मूलक को ) जैसे विद्वानोंको कथन है कि मायावाद' नहीं हैं। सूत्र-साहित्यके रचना-काल में हरएक मूल उपनिषद ग्रंथों में नहीं दिखायी देता बल्कि दर्शन को सुव्यवस्थित आकार (रूप) दिया गया इसको शंकराचार्यने जन्म दिया। किन्तु इसके होगा। इसी कालमें संख्या, वैशेषिक मीमांसक व विरुद्ध पाश्चात्य पण्डित एगौहने दिखलाया है कि नैयायिक आदि अनेक सांप्रदायोंके उत्पादकोने : मायावाद' का प्राथसिक रूप उपनिषद् ग्रंथमें अपने अपने मतोंके अनुसार सूत्र-ग्रंथ निर्माण जगह जगह दिखायी देता है, केवल उसको सिल- किये और अपने मतो को एक निश्चित रूपमें सिलेवार रखनेका काम बाद में हुअा है। बहुतसे ढाला । ऐसे सूत्रकारों में एक मुख्य सूत्रकार पण्डित यह भूलते हैं कि वेदो ही में मायावादका आचार्य बादरायणने शरीर सूत्र' वा 'वेद तसूत्र' , अस्त्वित्व है। द्वैत अथवा श्रद्ध त तत्त्रोंका वर्गी- तयार किया। पाल डॉयसेनने शङ्का उपस्थित की ' करण आजकल के 'मोनिस्ट' अथवा 'ज्य अलिस्ट' --