पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/२१८

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अद्वैत ज्ञानकोश (अ) १६५ अद्वैत का मतभेद नहीं है । अतका केवल विश्वस्पष्टी | उपासनाौका विरोध और केवल चातुर्वण्य तत्व करणके सम्बंध कोई मत विशेष नहीं था किंतु वह ही नहीं बल्कि जातिगत उच्चत्व और नीचत्व बोधक एक साम्प्रदाय था जिसमें विशिष्ट आचार और विषयता का तत्व शंकराचार्यको स्वीकार करना उपासनाओं का बोध होता था। इसी लिये श्रद्वत | पड़ा। परिस्थिति यह हुई कि एक ओर लोगवेदान्त की स्थापना करनेके प्रयत्नोंके साथ ही साथ और की बाते वोलते थे और दूसरी ओर ब्राह्मणेतर भी कुछ प्रयत्न करने पड़े, जिन विचारोंके कारण जातियों से छुआछूत मानने लगे थे। यज्ञ संस्थाका ह्रास हुआ ऐसे विचार उपनिषदों में अंतमत यदि केवल एक सिद्धांत ही रहता बहुत जगह व्यक्त हैं। यह बात नहीं है कि संस्थाके तो भी इसका महत्व कायम रह जाता। किन्तु वह हास होनेके साथही केवल 'औपनिषद' विचारों तो विशिष्ट उपासना और विशिष्ट आचार स्थापन की प्रबलता हुई बल्कि बौद्ध और जैन इत्यादि । करने का कारण हुआ। शंकराचार्यके प्रयत्न सांप्रदाय भी उत्पन्न हो गए थे। भागवत सांप्रदाय भी विविध थे। उन्हें (१) प्रतिमत अर्थात् सकल इसी समय उत्पन्न हुआ। यज्ञसंस्था द्वारा ब्राह्मणों विश्व एक द्रव्य मय है इस तत्वको स्थापना, (२) का जो महत्व बढ़ गया था वह इन विचारों द्वारा इस तत्व का वैदिक आधार है इसलिये इस तत्व कम होनेवाला था। उपनिषदोसे जिन दर्शनोंकी का और साथही वेदोका समर्थन और (३) उत्पत्ति हुई उनके कर्ताभी ब्राह्मण ही थे। बौद्धजैन | प्रचलित उपासनाओं को नया रूप देना ये तीन श्रादि मतोके प्रवर्तक ब्राह्मणेतर थे। ब्राह्मणोंको तो कार्य करने थे। बहुतसे अनुकूल उपासनासांप्र- अपना 'ब्राह्मण महत्व' कायम रखना था इसलिये ! दायोंसे भिड़ना था। शंकराचार्यको बौद्धोंका बौद्ध जैन इत्यादि मतोंके कारण जो 'देवता' उत्पन्न आस्तित्व मिटाना नहीं था बल्कि उनके कर्म हुए और जो उपासनाएँ प्रारम्भ हुई उनका विरोध | तथा उपासना मार्गको प्रधानता को कम करना था। करने के लिये या उनको कमजोर बनाने के लिये बौद्धधर्मके पतनके समय बहुतसे साम्प्रदाय साधारण लोगोंके जो देवता थे उनका महत्व बढ़ाना बढ़ गए थे। जिनमें शैव, वैष्णव और कापालिक ब्राह्मणोंके लिये आवश्यक था । यज्ञ प्रवर्तक | इत्यादि थे। ये सांप्रदाय आस्तिक मतके पोषक और यशविरोधी-केवल दो ही दल न रहकर कई थे। किन्तु इन सांप्रदायोंके अन्तर्गत अनाचार, दल हो गए। ये दो भागों में बँट गए। बौद्ध तथा जैन | जघन्यकर्म, विकट कर्मकांड आदि बाते ऐसी थीं इत्यादि एक भागमै और दूसरे भागमें वेदांगोंके जोकि किसीभी सात्विक अन्तःकरणके पुरुषके रचयिता. दर्शनोंके उत्पादक, साधारण जनताकी | हृदय में घृणा उत्पन्न कर सकती थी क्योंकि सर्व- उपासनाके और वीरों का महत्व वर्णन करनेवाले साधारण समाजके हितकी ओर दृष्टि रखकर थे। इन दो विभागोंके कारण जो तत्ववेत्ता वेदांग बिगड़ी हुई परिस्थितिको सुधारनेकी शक्ति बहुत और दर्शनों के प्रवर्तकों में से निकले वे अपने को थोड़े लोगोमें होती है। अतिशयोक्तिका विचार न प्रचलित उपासना करनेवालोके वर्गसे अलग न कर उस समयकी समाजिक अवस्थाका शान रख सके। ऐसा करनेसे उनहीं का वर्ग बलहीन हो | 'शंकर दिग्विजय' के निम्न श्लोकोंसे ठीक ठीक जाता । अद्वतमत ब्राह्मण जातिके महत्व को हो सकेगा- खोकार करही नहीं सकता था, परन्तु विचार वर्णाश्रम समाचाराद्विषन्ति ब्रह्मविद्वषः प्रवर्तक ब्राह्मणहीथे इसलिये जातिगत महत्व बनाए ब्रुवन्त्यान्मायवचसां जीविकामायतां प्रभो ॥३२॥ रखनेके मोहका संवरण शंकराचार्य भी न करसके। इसका फल यह हुआ कि तत्वतः तोश्रत सिद्धांत शिव विष्णवागम परैलिंगचक्रादि चिन्हितैः मान्य हुआ, पर आचारों में भिन्न रहने लगा। इस पाखण्डः कर्मसंन्यस्त व्यारूण्यामिव दुर्जनैः॥३५॥ तरह के विचार रखने और प्राचार उनके विपरीत करनेसे एक उलझन सी पैदा हो गयी जो कि सद्यःकृत्त द्विजशिरः पङ्कजार्चित भैरवैः मनीषा पंचकमें स्पष्ट रूपसे व्यक्त की हुई नध्वस्ता लोकमर्यादा कावा कापालिकाधमैः ॥ ३७॥ दिखायी देती है। X शंकराचार्य द्वारा प्रवर्तित पंचायतन पूजा का अन्येपि वहयो मार्गा सन्ति भूमौ सकण्टका संबन्ध अति मतसे बिलकुल नहीं है और जाति जनैर्येषु पदंदत्वा दुरंतं दुखमाप्यते ॥ ३६॥ भेद् तो उससे कहीं अधिक दूर है । शकराचार्यके इस प्रकारकी परिस्थितिमें समाजको अंतर्मुखी जीवन में उनकी वैव्यक्तिक स्थितिके कारण विशिष्ट करनेवाले किसी समाजसुधारक की अत्यन्त X X x X X 1 ।