पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/२१९

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पर ब्रह्मरूप अद्वैत ज्ञानकोप (अ) १६६ अद्वैत आवश्यकता थी। ठीक इसी मौकेपर आदिशंकरा- दुखाके परे जो अवस्था है उसमें जीव ब्रह्मकी पूर्ण चार्यने श्रद्धात' मत की स्थापना कर समस्त एकता होती है। जनताको शामकाण्डकी ओर झुकाया। शंकरमतकी एक प्रधान विशेषता यह है कि अद्वैतसिद्धांतके मूल प्रमेय-(१) एकही एक उसमें देवता, शास्त्र, सृष्टि रचनाशास्त्र, मानसशास्त्र, आत्मतत्व है। तनिष्ठ, तत्सजातीय अथवा तद्वि-! परलोक सम्बन्धी कल्पनाएँ इनमेसे किसी पर भी जातीय दूसरा कुछ भी नहीं है । (२) यह आत्म- विचार करनेसे उसके दो रूप दिखायी देंगे। तत्व निर्विशेष' है इसलिये यह ऐसा है या यह | उदाहरणके लिये परमार्थ दृष्टि से निर्गुण, निष्क्रिय वैसा 'इस तरह इसके सम्बन्धमें कुछभी नहीं शांत और निरंजन-इसतरह का ज्ञानरूप परब्रह्म कहा जा सकता। अर्थात् यह 'निर्गुण' होनेकी व्यावहारिक दृष्टिसे 'परमेश्वर' की संज्ञासे बोधित वजहसे इसपर शुभाशुभ गुणोंका भी आरोप नहीं होता है । इस दृष्टिसे इन दोनों स्वरूपोंका सम्बन्ध किया जा सकता (३) यह स्वयं ज्ञान स्वरूप है। केवल आभासरूप है। पारमार्थिक दृष्टिसे सृष्टि अर्थात् शान इसका गुण नहीं है और इसीलिये रचना का अर्थ सत् स्वरूपका ही प्रकाशन है। ज्ञातृत्व, ज्ञेयत्व आदि गुण आत्मतत्वमै संभवनीय व्यवहारिक दृष्टिसे तो आरंभ ही से "धातायथा नहीं हैं । (४) परमात्मा स्वरूपतः कूटस्थ, नित्य | पूर्वमकल्पयत् के अनुसार विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और अद्वितीय है । इसीको 'ब्रह्मावत' कहते हैं। और लय होता रहता है और संसारच अबाधित (५) परब्रह्मही 'माया” रूपी उपाधिके कारण स्वरूपसे घूमता रहता है। परमार्थिक दृष्टिसे जीव ईश्वर" और "अविद्या' रूपी उपाधिके कारण । और उसीके द्वारा व्यवहारार्थ 'जीव' होता है और जड़-सृष्टि श्राभासरूप होनेसे स्वीकृत किये हुए अविधारूपी घटनाके कारण वह झूठी है अर्थात् केवल एकही 'ब्रह्म' सत्य है। (६) कष्टभोगता है और इसीलिये "मैं-तू" आदिभेद ब्रह्म, स्वरूपतः अभिन्न किंतु देखनेमें भिन्न दिखायी होजाते हैं । ब्रह्मसूत्र भाष्यके उपोद्धात (प्रस्तावना) देनेवाली 'त्रिगुणात्मक माया' शक्तिको साथमै | के प्रारंभ ही में शंकराचार्यजी लिखते हैं- यह लेकर जगतको उत्पन्न करता है। संक्षेपमें यों कह | नित्यके अनुभवकी बात है कि मैं यो तू इन दो सकते हैं कि परब्रह्मके प्रति अज्ञान रूपी मायाके कल्पनाओं द्वारा व्यक्त होनेवाले विषयी और विषय कारण संसार भ्रांतिमें पड़ जाता है, जैसे रस्सी ये प्रकाश और अंधकार की तरह परस्पर विरोधी देखकर साँपका भ्रम करना। यही 'विवर्तवाद' हैं। इसलिये इनकी एकताकभी होही नहीं सकती। है। (७) परब्रह्मका विवर्तरूपो परिणाम ही यह जब ऐसी बात है तब हर एकके धर्म एक दूसरेके है कि आभासात्मक जग मिथ्या है। (2) इसी | साथ कैसे मेल खा सकते हैं ? झूठे जगतमें “वेदांत" शास्त्रका अन्तर्भाव होता है, और और विषयोंकी तरह मोक्ष तथा उसके इस कारण यह शास्त्र भी मिथ्या है। किंतु स्वप्नमे साधनके भी दो रूप दिखायी देते हैं। साधनोंमें दिखायी देनेवाले पदार्थों की तरह शास्त्र तत्वज्ञान निर्गुण ब्रह्मका साक्षात्कार करादेनेवाली 'परा के लिये साधनीभूत होते हैं । (६) अर्थशानके विद्या है (परा यथा तदक्षरमधिगम्यते ) और, साधनीभूत प्रमाण छः है-प्रत्यक्ष, अनुमान, | 'अपरा' विद्याके अन्तर्गत वेद-वेदांग तथा सब उपमान, शब्द, अर्थोत्पति और अनुपलब्धि। शास्त्रादि हैं । शांकर मतका श्राभिप्राय यह है कि (१०) जीव परमात्मासे अभिन्न है इसलिये वह 'अपरा' विद्याके कारण सगुण ब्रह्मकी प्राप्ति होती विभु और एकही है । जीवोंका अनेकत्व औपाधिक है और 'परा विद्या द्वारा पर ब्रह्मके साथ है। (११) ब्रह्मपर विचार आरंभ करनेके पूर्व एकरूपता होती है । इस प्रकार एक बार ब्रह्मसा- (अ) नित्यानित्य वस्तु विवेक (श्रा) इहामुत्रार्थ क्षात्कार हो जानेपर- फलभोग विराग, (इ) शमादि षट्क सम्पत्ति, भिद्यते हृदयग्रंथिच्छिद्यते सर्व संशयाः । मुमुक्षत्व, इनचार साधनोंकी प्राप्तिकी आवश्यकता क्षीयन्तेचास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे॥ और (१२) "अहं ब्रह्मास्मि" "तत्त्वमसि सत्यं हृदयकी प्रन्थि खुल जाती है, वह खतन्त्र हो झान मनंतं ब्रह्म" इत्यादि चेदांतके महावाक्योंके जाता है और समस्त संशयका नाश हो जाता है। अखण्ड अनुसन्धानले 'श्रात्मसाक्षात्कार होनेपर इस प्रकार ब्रह्मसाक्षात्कार होनेपर उसे कोई कर्म इसी लोकमे सदेह मुक्ति प्राप्त होती है। प्रारब्धकर्मों करना भी बाकी नहीं रह जाता। का क्षय होनेपर शरीर त्यागके पश्चात् प्राप्त होने अद्वैत साम्प्रदाय का साहित्य-श्रीमच्छंकराचार्य वाली अखंड 'विदेह मुक्ति प्राप्त होकर उस सुख ! ने अद्वैत मतकी स्थापना की और साथही साथ