पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/२२८

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अधिक मास अधिक मास ज्ञानकोष (अ)२०५ यहाँ वैदिक काल से है और बारह महीनोंके व्यवहार में श्रानेला 'मलमास' शब्द सिद्ध हुश्रा एक वर्ष की काल गणना भी चैदिक काल से है। अधिक मासको अपवित्रताका उल्लेख एतरेय चली अाती है। परन्तु सौरवर्ष के जहाँ ३६५ ब्राह्मण' में भी मिलता है क्योंकि उसके ३.१. में दिन होते हैं वहाँ चन्द्र महीनोंके ३५४ दिनही होते तेरहवें महीनेको निंद्य माना है । मूहूर्त चिन्तामणि हैं। इसलिये यदि एक वर्षके केवल बारह चन्द्र के रचयिता का कथन है कि जिस वर्ष में एक मास ही मानलिये जाँय तो जो मास पहला माना मासका क्षय हो जाता है और दो अधिक मास जायगा और वह यदि गर्मी के दिनोंमें हुआ तो वहीं आते हैं उन्हीं के लिये 'अंहस्पति' और 'संसर्प' पहला मास कभी जाड़े कभी बरसातमें हट बढ़ शब्द उपयुक्त होते हैं। (प्रकरण १, श्लोक ४७) कर पड़ने लगेगा और वर्तमान मुसलमानोंके इनमें क्षयमास के पहले आनेवाले अधिक मासको मुहर्रम मासकी तरह ३३ वर्षों में वह सब ऋतुओं संसर्प और बाद आनेवाले अधिक मासको अंह- में चक्कर लगा आवेगा। इसका दूसरा परिणाम सस्पति कहते हैं। यूरोपियन पडितोंका कथन यह होगा कि ३३ सौर वर्षों में चन्द्रवर्षों की संख्या हैं कि जिन वेदोंमें अधिक मासका उल्लेख है एक वर्ष बढ़ जायगी। अर्थात् हरएक चन्द्रवर्ष उनके कुछ भाग ईसाके १५०० वर्ष पूर्व तयार में ग्यारह या धारह दिन अथवा बत्तीस तैंतीस हुए होंगे। परन्तु कैशं-बा-दीक्षित के मतानुसार महीनों के बाद एक अधिक चन्द्र मास माने बिना अधिक मास बढ़ानेकी ही प्रथा शक गणनाके चन्द्र और सौर वर्षोंका मिलान न मिलेगा। ५००० वर्ष पूर्वसे इस देशमें प्रचलित है। 'ब्राह्मण और संहिता' में 'यज्ञ' और 'संवत्सर' अधिक मास निर्णय करनेको प्राचीन और आधुनिक को पर्यायवाची शब्द सिद्ध करनेवाले अनेक पद्धति-प्राचीन समयमै इस देशमें यह प्रथा थी प्रमाण हैं (ऐ-ब्रा-२-१७, ४. २२ । शत० ब्रा०११.१. कि जिस नक्षत्रमें चंद्र पूर्ण होता था उसी नक्षत्रके ११, २.७.१ तै० सं० २.५.७.३,७.५.७.४७. नामसे महीनेको पुकारते थे। इस लिये सरसरी २.१०.३) इसी कारण स्व० लो. तिलक के मता- तौर पर यह मालूम होता है कि किस नक्षत्र पर नुसार-“यह संवत्सर का ही दूसरा रूप था और चंद्र लगातार दो महीनेमें पूर्ण होताहै अथवा किन इसी कारण वह १२ चन्द्रमासौमे पूर्ण होता था। नक्षत्रोंमें वह बिलकुल पूर्ण नहीं होता यह देखकर परंतु नवीन यज्ञ वर्षारंभ ही से प्रारंभ होना ही शुरूमें अधिक मासको क्षयमास मानते थे। चाहिये इसलिये अथर्ववेद में (४.११. ११) में परन्तु कृत्तिकासे लेकर दो दो नक्षत्रों पर पूर्ण कहा गया है कि यनदेवता प्रजापति बचे हुए १२ चन्द्र हो तो उसे कार्तिकादि नाम दिये जायें और दिन यज्ञकी तयारी करने में व्यतीत करते हैं। फाल्गुन भाद्रपद आश्विन तीन तीन नक्षत्रोंके मान ऋग्वेद (४, ३३.७) में भी जो लिखा है कि लेनेसे इस नियमके अनुसार अधिक मास और वर्षभर परिश्रम करनेके कारण ऋभू (ऋतू) क्षयमास वारवार आते हैं। ख. शं. बा. दीक्षितके इस अवधि में अपनी गति धीमी कर सूर्यका मतानुसार चन्द्रकी गतिका सूक्ष्ममान ज्ञात होनेके आतित्थ ग्रहण करते हैं। ऐसा विदित होता है। पूर्व कुछ समय तक यही प्रथा स्थूल रूपसे प्रच. कि यह इन अधिक दिनोंको लक्ष्यकर के लिखा लित थी (Twelve year cicle by s.B. Dixit है। इससे यह अनुमान निकलता है कि ऋग्वेद! Indian Antiquary Jan,1888)प्रसिद्ध इतिहा- कालमें भी किसी समय चन्द्र और सौर वर्षका मेल सकार , ब. चिंतामणि विनायक वैद्य लिखते हैं बैठानेके लिये हरएक चन्द्र वर्षमें बारह दिन कि भारतीय (महाभारतीय) युद्ध कालमें पाँच वर्ष अधिक जोड़ देनेकी प्रथा प्रचलित थी"। (Tilok ! का एकयुग मान कर उसीमें दो महीने अर्थात् एक orion 1916 )! इन अधिक दिनोंके पूरे ऋतुका पूरा समय अधिक काल माननेकी प्रथा सम्बन्धमें ऋग्वेद (१.२५.८ ) में एक जगह रही होगी।" वेदांग ज्योतिष चन्द्र मान बहुत उल्लेख और है। वहाँ अर्थसंगति से अधिक सूक्ष्म है । वेदांग ज्योतिष पद्धतिसे ३० महीनोमें मासका अर्थ स्पष्ट हो जाता है। तैत्तिरीय संहिता एक अधिक मास श्राता है । उस समयभी पांच (१.४. १४ ) में अधिक मासको 'संसर्प' कहा वर्षका एक युग मानकर तीसरे वर्ष आषाढ़ और है और पुनः (५-६-७) में तेरह महीनोंका उल्लेख श्रावण दो में से कोई एक अधिकमास और पांचवें है। 'वाजसनेयि' संहिता में अधिक मासके वर्ष पौषके बाद दूसरा अधिक मास बढ़ा देते थे। 'अहंसस्पति' (७-३०) और 'मलिम्लुच' नाम दिये मालूम होता है कि यह नियमभी सूक्ष्म न होनेके हैं। इनमें से दूसरे नाम 'मलिम्लुच' से आजकल कारण प्रचलित न रह सका। 'पितामह सिद्धांत'