पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/२२९

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अधिक मास अधिक मास ज्ञानकोश (अ) २०६ में भी ३२ महीनोंके बाद अधिक मास माननेकी कम या अधिक मानके होते हैं। एक चन्द्रमासमें पद्धति दी है। पंच सिद्धांतिकोक्त' के अनुसार कभी दो संक्रमण हो सकते हैं। इसीसे क्षयमास सूर्य सिद्धांत आदि सूक्ष्म सिद्धांत तय्यार हो जाने होता है । जब क्षयमास होता है तब एकही वर्ष में पर अधिक मास सूक्ष्म गणितके अनुसार श्राने दो अधिक मास होते हैं । स्पष्ट मानके अनुसार दो लगा। इस समय मासमानके सम्बन्धमें सामान्य अधिक मासोंमें लघुनम अन्तर २- महीने या नियम यह है कि जिस चन्द्र मासमें मेष संक्रमण कभी २७ महीने होता है और महत्तम अन्तर ३५ हो उसे चैत्र मान कर आगेके महीनोंको वृषभ ' महीने होता है । ऊपर जिस धरसेनके ताम्रपत्रका इत्यादि संक्रांतियोंके अनुसार वैशाख श्रादि नाम उल्लेख किया है उससे दिखायी देता है कि शक कमसे देने चाहिये और जिसमें स्पष्ट संक्रमण न ५७० में गुजरात मध्यम मानके अनुसार अधिक हो उसे अधिक मास समझना चाहिये। किन्तु ! मास माना जाता था । मुहूर्त ग्रन्थ ज्योतिष दर्पण इस सम्बन्धमें जो दो परिभाषाएँ उपलब्ध हैं उन में श्रीपति (शक ६६१) के सिद्धांत शेखर ग्रन्थका के अनुसार अधिक मासका नामकरण पूर्व एक उद्धरण है जिससे स्पष्ट विदित होता है कि अथवा उत्तर मासके नामके अनुसार हो सकता मध्यम मानके अनुसारही पहले अधिक मास है। इस विषयमें माधवाचार्य (विद्यारण्य ) कृत माननेकी पद्धति प्रचलित थी । भास्कराचार्य क्षय- 'कालमाधव' में ब्रह्मसिद्धांतका माना जानेवाला | मास बतलाते हैं। मध्यममानके अनुसार क्षय एक वचन है । वह यो है-'मेषादिस्थे सरितरि-मास नहीं आता। इससे मालूम होता है उनके यो यो मासः प्रपूर्यते चन्द्रः । चैत्रायः सहयः पूर्ति समयमें उक्त पद्धति प्रचलित नहीं थी। स्व. श, द्वित्वेऽधिमासोऽत्यः ॥" व्यासकृत कालतत्व विवे. वा. दीक्षितका कथन है कि शक १००० के लगभग चन नामक धर्मशास्त्र के ग्रन्थमें एक उद्धरण और मध्यम मानके अनुसार क्षयमास माननेकी पद्धति भी है- मीनादिस्थो रविर्येषामारम्भ प्रथमे क्षणे । का लोप हो चुका था। भवत्तेऽब्दे चांद्रमासाश्चैत्राद्या द्वादशस्मृताः॥” इन स्व शं. वा. दीक्षित और रावट सेवेल द्वारा में पहला ग्रन्थ शक १३०० और दूसरा ग्रन्थ १५४२ १८४६ में प्रकाशित 'इंडियन कैलेंडर' नामक पुस्तक का है। दोनोंके अनुसार अन्य मासोंकी एकही में ई० ३०० से १६०० तक स्पष्ट मानके अनुसार संज्ञा होती है पर पहिले वचनके अनुसार अधिक अधिक मास और ३०० ई० से ११०० ई० तक मासका नाम-करण पूर्वके महीने के अनुसार और के मध्यम मानके अनुसार अधिक मास दिये दूसरेके अनुसार पश्चात्-मासके अनुसार होता है। हुए हैं। इस समय ऊपर कही हुई दूसरी पद्धतिही प्रचलित इस समय नर्मदाके उत्तरीय भागोंमें महीना है । परन्तु पहली परिभाषा कुछ काल तक मानी पूर्णिमांत माना जाता है। बराह मिहिर के समय जाती थी। इसे स्पष्ट करनेवाला चौथे धरसेनका जिस पूर्णिमांत मास में मेष संक्रमण होता था उसी शककी छठी शताब्दीका एक ताम्रपत्र खेड़ा जिलेमे को चैत्र मास माननेकी प्रथा थी। परन्तु अब प्राप्त हुवा है। पूर्णिमांत मानमें भी मास संक्षा और अधिक मास मध्यम संक्रमण और स्पष्ट संक्रमणमें अधिक मास- अमांत मानके अनुसार ही मानते हैं। दोनो ओर इस समय अधिक मास अथवा क्षयमास स्पष्ट के शुक्लपक्ष सदा एक ही संज्ञाके मासके होते हैं। संक्रमण ही के आधार पर माना जाता है। किन्तु दक्षिणकी ओर कृष्णपक्ष जिस संज्ञाके मासका यह दिखायी देता है कि किसी समय मध्यम मान होगा उसीके आगेवाली संज्ञाके मासका उत्तरकी हीके अनुसार अधिक मास माननेकी प्रथा प्रच- और वही कृष्ण पक्ष होता है। लित थी। मध्यम मानसे ३२ चन्द्र मास १६ पुर्णिमांत और अमांत मान-अमांत मानके तिथियाँ, ३ घड़ी और ५५ पलमै अर्थात् कभी ३२ अनुसार जब अधिक मास होता है उसी समय या कभी ३३ महोनों पर अधिक मास आता था। पूर्णिांत मानके अनुसार अधिक मास होता ही इसी मानसे और मासका मान ३० दिन २६ घड़ी नहीं । कारण यह है कि श्रमांत मासके अनुसार का और १८ पलका और चन्द्र मासका २६ दिन जब अधिक मास होता है उस समय एक संक्राति ३१ घडीका और ५० पल है। इस लिये एक चन्द्र अधिक मासके पूर्व पड़नेवाले कृष्णपक्षके अन्तमें मासमें दो संक्रांतियाँ कभी नहीं होती । और इसी आती है और दूसरी अधिक मासके बाद आने- कारण क्षयमास कभी न होगा । सूर्यकी स्पष्ट गति वाले शुक्लपक्षके आरम्भमें आती है। पूर्णिमांत सदा समान नहीं होती। इसलिये स्पष्ट सौरमास मानके अनुसार अधिक मासका शुक्लपक्ष विगत