पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/२४०

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अनन्तत्व ज्ञानकोश (अ)२१७ अनन्तत्व अवश्य है। पहला सिद्धान्त वल्ला मके अन्तःसृष्टि वर्ण नहीं हैं। उसी भाँति क्रमसे 'आई' इत्यादि विषयक कल्पना वाद् ( Subjective Idealistic) का निश्चित स्थान है। इस प्रकार का क्रम और से मिलता जुलता है। किन्तु फोगे इत्यादिने सीमा मनुष्य के बनाये हुए रूढ़िपर अवलम्बित इसका खूब खण्डन किया है। दूसरे सिद्धान्तपर है। दूसरी ओर रङ्ग का उदाहरण लीजिये। ध्यान देनेसे यह स्पष्ट विदित होता है कि संभवनीय वर्णमाला की भाँति इसका श्रादि अन्त कहना विषय और सच्ची वस्तुस्थितिमै भेद होनेसे कठिन है क्योंकि यह रूढिकृत नहीं है बल्कि उपरोक्त सिद्धान्त भी नहीं ठहर सकता। तीसरे प्रकृति-नियमित है। इस प्रकार भी कल्पना तो सिद्धान्तमै केवल यही है कि कोई भी बात किसी की जा सकती है कि कोई एक ऐसी घटना मानी हुई बानसे कम अथवा अधिक प्रमाणमें होगी जिसके पूर्व दूसरी कोई भी घटना नहीं वाह्यसृष्टि विषयक ( Objective ) स्वरूपमें होती घटी होगी। इसी भाँति आकाशमें कोई न कोई है। उदाहरण के लिये किन्नर नामक कल्पित तो एक ऐसा नक्षत्र अवश्य ही होगा जिसके जीवधारीको लीजिये । (किन्नर--यह एक कल्पित पश्चिम कोईभी दूसरा नक्षत्र न होगा। इस भाँति गन्धर्वोकी एक जाति विशेष है जिसका शरीर की कल्पनाओमें भी अनेक अडचने पड़ती है। मनुष्यके और मुख अश्वके समान होता है ): ल्यूकेशियसने ऐसी कई शंकायें सन्मुख उपस्थितकी श्रतः ऐसा कोई खास नियम नहीं है कि इसी प्रकार | हैं। उसका प्रश्न है कि यदि कोई मनुष्य विश्वके की कल्पना वाह्य सृष्टि में जो बातें कभी नहीं हुई | बिल्कुल सिरे पर खड़ा है और दूसरा उसे बाण हैं उन बातोंके विषयमें नहीं की जासकती हो। मारे तो उसमें बाधा कहाँसे पड़ेगी। इसका इतना उदाहरण के लिये कह सकते हैं कि कोईभी संख्या उत्तर हो सकता है कि यद्यपि इस विशाल अन्तर विभाज्य होगी। यही विभाग पद्धति अन्य वस्तुओं में बाधा उत्पन्न करने वाली कोईभी वस्तु नहीं है के सम्बन्धमें भी लग सकती हैं । मेढोंके एक झुण्ड | तथापि विश्वके एक सिरेपर जानाही मानवशक्तिसे के दो भाग किये जा सकते हैं। उस भागसे पुनः दो असमम्भव है। उसी प्रकार यदि अन्तर ( Dist. भाग हो सकते हैं इसी भाँति कई बार यह क्रिया | ance ) द्वारा रुकाचट करनेका साधन न हो तो की जासकती है। परन्तु शीत्रही एक ऐसी कुल विश्वकी घटनामें ही प्रतिबन्धक स्थिति अवस्था आवेगी कि जब मेढोंका नाश किये बिना | होगी। प्रसिद्ध तत्ववेत्ता कॉन्टने कालके विषयमें यह भाग-क्रिया असम्भव होगा। निस्सन्देह, इस इससे अधिक विचारणीय बाधायें उपस्थित की अन्तर्विभागकी कल्पनामें भी कुछ सत्यार्थकी झलक ! हैं। सीमा-सम्बन्धी कालकी जो कल्पनाये हैं, वे है। यद्यपि इस कल्पना का अर्थ मेढोके विभाग | और भी अधिक जटिल हैं। में भी न हो किन्तु उनके मूल्य इत्यादिके अनन्त-विभाग–अनन्त-विस्तार की कल्पनाके सम्बन्धमै तो लागू हो ही सकती है। इसी भाँति विरुद्ध जो आक्षेप किये गये हैं उनकी अपेक्षा गणितशास्त्रकी दृष्टिसे तो अनन्त संख्याकी कल्पना अनन्त-विभागको कल्पनाके विरुद्ध अधिक स्पष्ट का बहुत कुछ महत्व है ही। चाहे यह एक गूढ आक्षेप हैं। अन्त-रहित पूर्णत्व को कल्पनामें जो समस्या ही रह जाय कि उपरोक्त सिद्धान्त किन बाधाये हैं, वे सब तो इसमें हैं ही, इसके अतिरिक्त पदार्थोंपर और कहां ठीक बैठेगा। इस विषयको कल्पनामें सीमा अथवा मर्यादा मान अनन्त-विस्तार-अनन्त-विस्तार के विषयमें | लेनी पड़ती है। जब हम किसी वस्तु विशेष के सामान्य कल्पना है कि अवकाश (Space ), अनन्त भाग करनेको कल्पना करते ह उस समय काल ( Time ) और वे पदार्थ जो अस्तित्वमै यह भी कल्पना करना आवश्यक है कि प्रत्येक भाग हैं, अथवा जिन पर वे निर्भर हैं ऐसे पदार्थ अनन्त अंशसे सूक्ष्म हो। इसी लिये कॉन्ट का क्रमानुसार इस कल्पनापर निर्भर हैं। यदि औप- कथन है कि कोई एक विशेषक्रम अनियमित रीति चारिक रीतिसे कहा जाय तो ऐसे क्रमका किसी से अमन-रहित मानना नहीं चाहिये. किन्तु पूर्णत्व विशेष स्थान पर रुकनेका कोई कारण नहीं है। सब और पूर्ण मानना चाहिये। कॉन्टके इस मत क्योंकि इस क्रमको चाहे जहाँ तक बढ़ाया जा में केवल यही दोष देख पड़ता है कि विभाज्य सकता है, किन्तु अन्तमें उससे भी अधिक विस्तार व्यको वह एकही रूप मान लेता है और यदि हो ही सकता है। किन्तु अस्तित्वके सभी विषय कोई पदार्थ एक रूप ही हो तो उसको वह एकही इस प्रकारके नहीं होते। उदाहरणके लिये वर्ण-रीतिसे विभाज्य मान लेता है । किन्तु ऐसी कल्पना मालाके अक्षरों को ले सकते हैं । 'अ' के पूर्व कोई | करनेसे यह प्रश्न उठता है कि वह पदार्थ पूर्णरूप २८