पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/२६३

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ATI ज्ञानकोश (अ) २४० अन्न पाप दूसरेको होता है। इतिहाससे ऐसा पता सम्प्रदायका अन्तिम ध्येय देव-भोजन ही है । यश, लगता है कि मिश्च और यूनान देशमें भी अहार श्राद्ध इत्यादि की प्रथा भी कदाचित् इसीका और धर्मका सम्बन्ध था। कुरानकी श्राहा है ज्वलन्त प्रमाण है। कि मृत-प्राणी, सूत्ररका गोश्त और रक्त इत्यादि हिन्दू धर्ममें अन्नकी महिमा का भी विशेष विवरण किया गया है। द्विजोको शिक्षा दी जाती .. प्राचीन कालही से अनेक जातियों में भोजन- है अन्नका आदर करें और नियमपूर्वक उसका सम्बन्धी अनेक भावनायें और धारणायें पाई सेवन करें। अन्नका निरादर करना पाप माना जाती हैं। इनमें से बहुतेरी का अर्थ तो समझमें | गया है। इस सम्बन्ध में मनुके वचन नीचे दिये श्राता है और बहुत सो केवल अन्धविश्वासके जाते हैं- गहरे गड्डेमें गिरी हुई प्रतीत होती हैं। क्वीन्सलेड पूजये दशनं नित्य मद्याच्चै तदकुत्लयन् । के निवासी अपना झूठा अन्न अग्निमें जला दृष्ट्वा हृष्येत्प्रसीदेच प्रतिनन्देच सर्वशः। डालते हैं। उनकी यह प्रबल धारणा है कि पूजितं ाशनं नित्यं बलमूमैं च यच्छति । झूठे प्रश्न पर सन्त्र मन्त्र सिद्ध करके मनुष्यको श्रपूजितंतु तदभुक्त मुभयं नाशयेदिदम् ॥ असीम पीड़ा पहुंचाई जा सकती है। हिक्टो- (मनु ५४-५५) रियन जातिके मनुष्य अपने मारे हुए पशुओको अर्थ-अन्नकी सदा पूजा करे। बिना कुत्सित हड्डीकी बड़ी खबरदारी रखते हैं क्योंकि उनका विचार लाये हुये अन्न ग्रहण करे और प्रसन्न हो । विचार है कि उस पशुको हड्डी द्वारा शनु रोग | 'सब अन्न लदा हमको प्राह होता रहे' ऐसी स्तुति उत्पन्न करके अनर्थ कर सकता है। न्यू-हेन्री- करते हुए भक्तिपूर्वक नमस्कार करे, क्योंकि डीजके 'तना जातिके मनुष्य अपना झूठा अन्न सम्मानित तथा पूजित अन्न बल तथा वीर्य की कभी कहीं नहीं छोड़ते। झूठे अन्नको अपने | वृद्धि करता है और निरादर किया हुअा अन्न इन साथ साथ उस समय तक लिये रहते हैं जब दोनों का नाश करता है। तक कहीं बहता पानी नहीं मिलतां । बहते मैक्सिकोमें मनुष्यको आनकी महिमा का उप- पानी छोड़नेसे उनका ऐसा विश्वास है कि. देश दिया जाता है। उसका सारांश इस भाँति सब आपत्ति दूर होती है। कुछ आतियोमे होता है:-संसार में ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं जो ऐसी भावना है कि मनुष्य-मांस ही तन्त्र-मंत्र भोजन न करता हो क्योंकि पेट तो हरेक के साथ सिद्धि के लिये विशेष उपयुक्त तथा प्रभावशाली ही बँधा हुआ रहता है शरीर की होता है। बहुतसी जातियोंमें ऐसा माननेकी रक्षा से ही आत्मा और प्राणकी भी रक्षा होती प्रथा भी चली आती है कि मनुष्यके संसर्गसे है। इसीसे संसार प्रजा सम्पन्न होता है। उप- गुण-धर्म उसके अन्नमें श्रा जाता है, मनुष्यका निषदों में भी अन्नकी महिमा गाई है और उसकी गुण अथवा अवगुण उसके अनमें प्रविष्ट रहता | स्तुति अनेक स्थानों पर की है- है। अमेरिकाके इण्डियन लोग हत्यारे का अन्नं ब्रह्मेति व्यजामत, अन्नाद्येव खल्विमानि भूतानि जायते बनाया हुआ अन्न अपवित्र तथा त्याज्य समझते । अनेन जातानि जीवन्ति, अन्न प्रयन्त्यभि संविशन्तीति । हैं। समोश्रा ( Samoah ) में यह प्रथा है कि (तैत्तिरीयोपनिषत) मृतकके साथ जाने वालेको विना शुद्ध हुए अन्न पृथ्वी पर रहने वाले सम्पूर्ण प्राणि अन्नसे स्पर्शका अधिकार नहीं है। हिन्दुओं में भी ऐसे उत्पन्न हुए हैं। वे अन्न ही द्वारा जीवित रहते हैं ही विचार कुछ और बढ़कर देख पड़ते हैं। बहुधा और अन्त में अन्नमें मिल जाते हैं। इनमें दस दिन तक सूतक मानने की प्रथा है। शतपथ ब्राह्मलोका कथन है कि अन्न शरीरमें इतने दिनों तक केवल इन्हींका अन्न अपवित्र प्रवेश करनेपर शरीर ही हो जाता है। प्राण नहीं समझा जाता बल्कि इन्हें स्वयं भी बहुतसे द्वारा अन्न शरीरसे सम्बन्ध रखता है। अन्नका भोज्य पदार्थ उतने दिन तक वयं है। तत्व अदृश्य रहता है। अन्न तथा प्राण एकही इसीभाँति अनेक योजनाओं द्वारा अथवा उत्तम रूप है। वे दोनों ही देवखरूप है। प्रतिहार मनुष्य के संसर्ग से अन्नमें पवित्रता आती है। सूक्तोंका देवता अन्न ही है। हिन्दुओंमें देवताओं, पितरों तथा गुरुजनोंके देश तथा जातिको आर्थिक स्थितिका भी प्रसाद तथा भोग को पाने से बुद्धि-विकास तथा अन्नसे बहुत कुछ सम्बन्ध होता है। इसीका संकट दूर होने की भावना पायी जाती है। ईसाई ध्यान रख कर अनेक प्रथाओं तथा नियमोका