पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/२८०

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अपच ज्ञानकोश (अ) २५७ अपदान सम। सुश्रुतमें (१-३५.३) भी इन्हीं भेदोका है। यद्यपि यह अंथ प्रकाशित नहीं हुआ है, उल्लेख किया है। सुश्रुतमें इन चारोंका विस्तृत तथापि थेरी गाथाकी टोकामे (Edvard ful. वर्णन भी मिलता है। विषमाग्निमें चाहे अन्न ler's Edition ) इसमें को ४० जीवनी उतारी गई पाचनकी क्रिया ठीक भी विदित होती हो, किन्तु है। उसमें ईसाके पूर्वकी तीसरी शताब्दीके इससे मेदोबृद्धि, शैत्य, मलावरोध, आतिसार, पेट तिस्स रचित 'कथा वायु' ग्रंथका उल्लेख मिलता में बोझ, पेट का गुड़गुड़ाना इत्यादि विकार है। इससे यह कहा जा सकता है कि बौद्धके उत्पन्न होते हैं। तीदणाग्निमें खाया हुआ अन्न | वादके ग्रंथोंमें से एक यह भी है। इसके लिये शीघ्र ही पचता हुआ मालूम तो पड़ता है, किन्तु अन्य प्रमाण भी प्राप्त होते हैं। दीर्घनिकायमें साथ ही जलन, दाह, होठों पर पपड़ी, सूखापन | ऐतिहासिक बुद्ध से पहले छः बुद्धों का वर्णन तथा पित्तविकार उत्पन्न हो जाते हैं। मन्दाग्निमें मिलता है। इसके बाद के ग्रंथों में इसकी संख्या अन्नपांचनकी क्रिया बड़ी शिथिल हो जाती है, | २४ देख पड़ती है, किन्तु अपदानमें तो ३५ तक पेटपर अफार मालुम होता है. सिर सदा भारी संख्या पहुँच गई है। सम्भव है इसकी भिन्न २ रहता है, खाँसी, कफ, पित्त, मुहमै लारका पाना, कथायें भिन्न २ कालकी हो, किन्तु उपरोक्त प्रमाण शरीर-पीड़ा तथा बमनकी ओर प्रवृत्ति सदा बनी से यह सिद्ध होता है कि अनेक अन्य ग्रंथोकी रहती है। स्थायी रूपसे अपच रहते रहते यह | रचनाके पश्चात ही ये कथायें बौद्ध धर्मके अन्त- रोग हो जाता है। इस रोगके लिये वृन्द सिद्ध- र्गत की गई हैं। योगमें हिंगुल-त्रिफला-मिश्रित गोलीका सेवन 'विशुद्ध-जन-विलासिनी' नामक अपदानकी बताया है। बॉबर हस्त-लेख (२५३-५५) में एक दीका उपलब्ध है। गन्धवंशके दो अवतरणोसे विशेष चूर्णका इसके लिये उल्लेख किया है जिसके प्रतीत होता है कि इसका टीकाकार बुद्घोष सेवनसे मनुष्य शतायुको प्राप्त करता हुआ निरोग रहा होगा । रहता है। 'सुमंगल विलासिनी-ग्रंथसे पता चलता है कि अपच बहुत अधिक जल पीते रहनेले, अनि- दोघ वालोंका मत था कि अपदान ग्रंथ 'अभि- यमित समय पर भोजन करने से, तुधा अथवा | धर्म पिटक' में का है, किन्तु ममिझम वालोंका अन्य प्राकृतिक क्रियाओका अवरोध करनेसे, कथन था कि वह 'सुतन्त पिटक' में से है। असमय सोनेसे उत्पन्न हो सकता है (माधव १३)। दोनों सम्प्रदायोंमें जो मतभेद देख पड़ता है इससे इसके सामान्य लक्षण आलस्य, भारीपन, पेट भी यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह फूलना, मलावरोध इत्यादि हैं। कफ दोष से ग्रंथ वादका है। अपदानका अर्थ ' शुद्धाचरण, आमदोषका प्रादुर्भाव होता है। इससे गाल तथा शूरकर्म' इत्यादि होता है। बहुधा अपदानों में पलक सूज जाती है, खानेके साथही अन्तःक्षोभ नायक तथा नायिकाके वर्णनके पहले उनके पूर्व उत्पन्न होने लगता है। विदग्ध दोषसे पित्त जन्मका इतिहास दिया देख पड़ता है. तदन्तर उत्पन्न होता है। इसमें तृषाकी अधिकता, मुर्छा | उनका वर्तमान वर्णित रहता है। अतः यह स्वेद, दाह आदि होते हैं। ( शार्ङ्गधर ६१-३ सुश्रुत कहा जा सकता है कि अपदान जातकके ही समान वर्तमान तथा पूर्वकालका पुराण होता है । - भयंकर अपच होनेसे भी मूर्छा, उन्मत्तवात, भेद केवल इतना ही होता है कि जातको किसी वमन, आलस्य, सिर घूमना इत्यादि विकार होने वुद्धका पूर्व इतिहास दिया रहता है और अपदान लगते हैं। इसीसे विसूचिका, अलसक, मला- में अधिकतर 'अर्हत' का वर्णन देख पड़ता है। वरोध, हिंगज्वर इत्यादि भयंकर रोग तक उत्पन्न ईसाकी पहली शताब्दीमें जब बौद्ध संस्कृतमें हो सकते हैं। अतः प्रारम्भ ही से बड़ी साव- ग्रंथ रचते थे तो उस समय तो ये कथाये लोक- धानीसे रहना चाहिये। इस सम्बन्धमें विशेष प्रिय थी हों, केवल 'अपदान' का संस्कृत नाम ब्यौरके लिये 'अग्निमान्द्य' पर लेख देखिये । 'अवदान' पड़ गया। आधुनिक समय में बहुतसे [ सुश्रुत ६.५६ माधव ९४-६ बा० १८५, १९६, अपदान भिन्न भिन्न भाषाओं में अनुवादित देख भा० २.२-२४] पड़ते हैं। संस्कृत, तिब्बती, चीनी भाषामे अनेक अपदान-इस नामका पालो भाषामे एक के अनुवाद हो चुके हैं। इनमें 'अवदान शतक अंथ है। इसमें बुद्धकालके वौद्ध-सम्प्रदायके ५५० तथा दिव्यावदान' प्रसिद्ध हैं। इन अवदानों में पुरुष तथा ४० स्त्रियोंके जीवनचरित्र दिये हुए किसी अपदानसे कोई कथा अक्षरशः नहीं उतारी ३३