पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/२८२

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! अपस्मार ज्ञानकोश (;अ) २५६ अपस्मार क्षीण हो जाती है, अथवा जव किसी विशेष चिन्ता | हिलाने लगता है, चौपाये पशुओं की भाँति चलने- भय अथवा शोकसे शरीर तथा चित्त दोनों ही का प्रयत्न करता है, दाँत कारता है, उसकी प्रकृति दृषित रहने लगते हैं, तो उसका प्रभाव मनुष्यके रुक्ष तथा भयंकर हो जाती है, प्यासकी अधिकता मस्तिष्क पर भी पड़ता है, और यदि वह उसकी | रहती है, इत्यादि इत्यादि। सहन-शक्तिसे अधिक हुआ तो मनुष्यको यह रोग कफ विकार द्वारा रोग उत्पन्न होनेसे कुछ हो जाता है। ऐसी अवस्थामें मनुष्य बिलकुल कालके बाद रोगी भूच्छित हो जाता है, और बड़ी मूढ़ सा हो जाता है, तथा नाना प्रकार के उपद्रव | देर के बाद वह होशमें आता है। आरम्भमें ही करने लगता है, चैतन्यावस्थाका बिल्कुल लोप हो थोड़ा हाथ पैर पटकता है मुखसे लार तथा फेन जाता है। वह दांत कट कटाने लगता है, अवसर अधिक निकलती है। आँख, नाखून तथा मुख मिलने पर काट भी खाता है, मुँहसे फेन सथा श्वेत पड़ जाते हैं। रोगीको स्वयं भी सब सफेद लार निकलने लगती है, भूमिपर हाथ पैर जोर- देख पड़ता है जोरसे पटकता है, शरीर धुनता है, और धीरे २ सन्निपातिक अपस्मार सबसे भयंकर समझा उसकी आँखे तथा भौं तन जाती हैं और भयंकर जाता है। इसमें उपरोक्त सभी लक्षण देख पड़ते दीख पड़ती हैं। कुछ समय तक यही अवस्था हैं। इसका रोगी कठिनतासे ही साध्य होता है। रहने के पश्चात् दोषका वेग कम पड़ने पर वह अपस्मार का किसी अंश तक एपिलेप्सी(Epi- शान्त हो जाता है और धीरे-धीरे चैतन्यताको | lepsy)से सादृश्य कह सकते हैं. यद्यपि उचित तो प्राप्त कर लेता है। इस रोगमें मुख्य बात यह है यही कहना होगा कि एपिलेप्सी अपस्मारका एक कि रोगीको इस बात का ध्यान बिल्कुल नहीं रहता भेद विशेष है। इसमें बहुधा रोगी प्रारम्भमें कि वह कहाँ है कौन है, और क्या कर रहा है। थोड़ी देर तक हाथ पैर पटक कर बेहोश हो जाता मूर्छाले यह रोग भिन्न है। क्योकि मूर्छा पाने | है। इस रोगमें यह आवश्यक नहीं है कि शरीर पर मनुष्य संशाहीन होकर निश्चेष्ट भी हो जाता | के किसी भागमें कोई विकार स्थायी रूपले हो ही। है और किसी भी क्रिया करने में असमर्थ हो जाता है। ऐसे अनेक रोग हैं जिनमें शरीरके अभ्यन्तरमें इसके वैद्यक शास्त्रमें चार भेद किये गये हैं- कोई विकार न होते हुए केवल क्रियामें ही दोष [१] बातजनित, [२] पित्त-जनित, [३] कफ देख पड़ता है। उन्मादवायु इत्यादि ऐसे ही रोगों- जनित तथा [४] सन्निपात-जनित । बात, पित्त, में इसका भी समावेश किया जा सकता है। भीत- किसो एकक विकारसे भी यह रोग उत्पन्न रसे कोई सम्बन्ध न रहकर केवल व्यापार ही द्वारा हो सकता है, अथवा इन तीनोंके दाष [ सन्निपा- | यह रोग देख पड़ता है । तिक ] से भी हो जाता कारण-बहुधा पुरुषों की अपेक्षा यह रोग स्त्रियों- इस रोगके साधारण लक्षण तो पहले ही से को विशेष रूपसे होता हुआ देखा गया है। कुल अनुभव होने लगते हैं। हृत्कम्पन, जड़ता, भ्रम, | रोगियोंके विषयमे यदि ज्ञान प्राप्त किया जाय तो आँखोंके सामने अँधेरा दिखाई देना, चित्तमे घब- यह पता लगेगा कि इस रोगका प्रादुर्भाव प्रति- राहटका अनुभव, आँखों का ऊपरको ओर तनते शत या तो वाल्यावस्थामै अथवा युवावस्थाके हुए मालूम होना, कानमें भनभनाहट सुनाई देना, श्रारम्भमें ही हो जाता है। इस रोगका जड़से बैठे बैठे पसीना छूटने लगना, इत्यादि क्रियाओंसे नाश होना बड़ा कठिन है; अतः देखा गया है कि रोगीको इसका दौरा होने का पहले ही से अनुभव | जिन को एक बार भी हो जाता है वे सम्पूर्ण आयु होने लगता है। अपच, अरुचि, सूर्छा, शक्तिहास भर इससे पीड़ित हाते रहते हैं। किन्तु इसस नोंदका न अाना, शरीर सदैव टूटते रहना, होठ मृत्यु बहुत कम होती है। अन्तमें मनुष्य किसी तथा गला सूखते रहना, निद्राम सदैव भयंकर अन्य रोगसे पीड़ित हाकर हो मरता है। इस स्वप्न देखते रहना, इत्यादि इस राग होनेके रोगका सम्बन्ध वंश अथवा माता-पितासे बहुत बहुधा ऐसा ही देखा गया जिन रोगियोंको वात-विकारसे यह रोग उत्पन्न है कि जिनके माता-पिताको यह रोग था उनक हो जाता है, उनका शरीर और विशेषकर पैर वंशजोंमें भी किसो-किसी हो जाता है। माता- काँपने लगता है, बारम्बार मूर्छा आने लगती है | पिताके अनेक दोषोंसे भी उनके घंशजोंको यह रोने अथवा हँसने लगता है। उसकी आँखे भयं- रोग हो जाता है । बहुधा माता-पिता कोई रोग कर हो जाती हैं, मुखसे फेन निकलता है, शिरको | न होने पर भी वाल्यावस्थाको कुवृत्तियों द्वारा, कफ, ! सम्बन्ध रखता है। सूचक है।