अपुष्प वनस्पति 1 ज्ञानकोश (अ)१७७ अपुष्प वनस्पति बढ़ती है। इस पेशीके विभाग होकर अधोभाग योरपमें एक बनस्पति है जो केवल रजकोश के और भी विभाग होते हुए शाखें बढ़ती हैं। बनाती है। इसमें बिना संयोगके स्वयं ही रजकी ऊपरका भाग पहिलेके इतना बड़ा होकर उसके गर्भधारणा होती है और इससे नयी बनस्पति फिर दो भाग होते हैं। उसमें का ऊपरका | उत्पन्न होती है। कुछ बनस्पतियों में नीचे के हिस्से हिस्सा फिर बढ़ता है और फिर उसके दो भाग में छोटे २ प्याजके सदृश पदार्थ तयार होते हैं। होते हैं। कांड बांस के समान पोले होते हैं। ये प्याज कांडसे ही एक विशिष्ट प्रकारसे बने उसको पेशियों में एक एक केन्द्र होता है। और रहते हैं। उनमें पतली २ डालियाँ भी रहती हैं। बहुत से गोल हरिद्रव्य शरीर होते हैं। लिंग करंडक धारी-(१) शैवाल वर्गकी (Bryo- जननपेशीसे अयोगसंभव उत्पादन कांड शरी- phyta) दो जातियाँ होती हैं--(१) सेवार-सेवार रिका में कभी नहीं होता। योगसंभव उत्पा- तन्तुसे भिन्न, (२) सेवारके सदृशही पत्थर तथा दन रेत व रजके सम्बन्धसे होता है। रेतकर- ईटपर उत्पन्न होने वाली और फैलने वाली बन- डक गोल और ताबेके रंगका होता है, और स्पति । स्थाणुवर्ग और इस वर्गमें मुख्य भेद बिना यन्त्र के ही श्रांखों से देख पड़ता है। रज इनके संयोगेन्द्रिय विषयका हैं । इन वर्गों में जनन- करंडक लंबे श्राकार के होते हैं। ये दोनों प्रकार | कोशसे अयोगसंभव उत्पादन होता है। जनन- के करंडक मुख्य तनेमै अथवा उसकी डालियों में | कोशोसे तयार होने वाली वनस्पतियों में संयोगिक निकली हुई महीन २ डालियोंके काण्डाम पर इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं, और इन इन्द्रियोंके निकलते हैं। कुछ वनस्पतियोंमें एकमें केवल संयोगले उत्पन्न होने वाली वनस्पतिमें जननकोश रेतपेशी और दूसरीमें केवल रजपेशी ही मिलती उत्पन्न होते हैं। इस प्रकारसे इस वर्गमे अलिंग हैं। प्रायः शेष सभी वनस्पतियों में रेत व रज और लिंग दोनों प्रकारको पीढियां उत्तम प्रकारसे दोनों एक ही वनस्पति पर मिलते दिखलाई पड़ती हैं। जननकोशके स्पर्श होते ही रेतकी डिबिया पक थैलीसे उत्पन्न होती है। तत्काल बनस्पति तैयार होती है। किन्तु सेवार उस थैलीके पाठ भाग होते हैं। फिर हर एक में उससे पहले एक तन्तुमय जाल उत्पन्न होता है भागके तीन तीन विभाग होते हैं। तब बाहरी और उसमें कलियाँ निकलती हैं। इन कलियों में अाठ कोशों के सम्मिलन से बाहरी पोला गोला सेवार उगता है। यकृतकमै की बहुत सी बन तैयार होता है और बाकीसे गोलेके श्राठों भागों स्पतियों में द्विपाद ( Dichotourous ) शाखायें मै भीतरसे डठे उत्पन्न होते हैं और उन डंठोंमें निकलती हैं और ये सब शास्त्रायें नीचे तन्तुओंसे लंबी लंबी पट्टियोकी तरह थैलियाँ निकलती हैं। जमीनमें चिपक जाती हैं। उच्च यकृतक और इन थैलियोंमे रेत कोश रहते हैं। रेतकोश | सब सेवारोंमें तन्तु और पत्ते अलग २ रहते हैं। काग (Cork) निकालने के पंच के समान ऐंठनदार तनेमे नीचे की ओर तन्तु होते हैं। ये तन्तु जड़ होता है और उसमें बालके समान दो तन्तु का सब काम करते हैं। इस वर्गभे असली जड़ें रहते हैं। नहीं रहती। सेवारकी भीतरी वनावट भी बहुत रजकोश प्रथम खाली रहता है किन्तु शीघ्र ही ही सरल प्रकारकी होतो है। जब तनेमें ( शिराये उसपर पाँच कोशोका एक वेष्टन चढ़ पाता है। ! वाहिनियां) रहती हैं तब वे विल्कुल सरल अर्थात् ये कोश उसके चारो तरफ लिपट कर उनके सिरे | लम्बे कोशोंके समुदायकी तरह रहती हैं। संयो- अन्तमें कलगीके समान ऊपर उठ पाते हैं। इन | गिक इन्द्रियाँ सेवार में पूर्ण रूपसे बढ़ने के बाद सब सिरोंके बीचके छिद्रोंसे रेत भीतर जाता है | लिंग पीढ़ी पर पाती है। जो स्थाणुरूप होते हैं और फिर उसका संयोग रजसे होता है। रज- उनके ऊपरी भागमें, और जो प्याजके सदृश होते कोशमें बहुतसे तेलके बिन्दु तथा पिष्टसत्व हैं उनकी चोटी पर ये इन्द्रियाँ रहती हैं। ( Starch ) रहता है। रजका संयांग होनेसे रेतकी डिबियाँ लम्बी, गोल या मुद्लाकार उसपर एक मोटी त्वचा आती है और वह वन- रहती हैं। उनमें एक डंठल रहता है। उनमें स्पतिसे अलग होकर गलकर नीचे गिर जाता है। बहुतसे कोश होते हैं और प्रत्ये कसे दो दो रेत: फिर उससे कुछ तन्तु उत्पन्न होते हैं। तत्पश्चात कोश उत्पन्न होते हैं। डिबियोंका ऊपरी भाग उन तन्तुओंसे नीचे जड़के समान तन्तु और ऊपर फर कर रेतकोश बाहर निकलते हैं। इनमें किंचित् मुख्य डाल तैयार होनेसे कांड शरीरको पूर्ण रूप ऐठन होती है और बालके सदृश दो २ तन्तु रहते प्राप्त होता है। हैं। रजकी डिबियाँ सुराहीके समान रहती हैं।
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