अपुष्प वनस्पति ज्ञानकोश (अ)२८३ अपुष्प वनस्पति पर पुरस्थाणु पाता है। उसपर तीन रज करंडक | पानी मिलते हो यह जनन पेशीके चारों ओर निकलते हैं। परन्तु अन्तमे उनमें से एक ही रह लपट जाते हैं। इससे दो भिन्न प्रकार के जाता है। इसमें एकका रेतसे संयोग होकर एक पुरस्थाणु उत्पन्न होते हैं। तब संयोगके लिये गर्भ तैयार होता है। उसको नेचेकी भांति 'पैर' | दोनों प्रकारके पुरस्थाणु पास पास हो जाते हैं। होता है। गर्भसे नवीन अलिंग पीढ़ी उत्पन्न | इस पुच्छमें जनन पेशी अटककर उनका एक गोला होती है होता है और वह एकभ ही एक जगह पड़ता है। (२) अश्वपुच्छ ( Equisetinae )-इस जाति इस प्रकार दो तरहके पुरस्थाणु उत्पन्न होते हैं । में केवल अश्वपुच्छ नामक एक ही वनस्पति है। कुछ शाखाओ पर जनन पेशी नहीं पाती। केवल इसके साधारणतः २० भेद हैं। दलदलमे यह विविक्षित शाखाओं पर ही आती हैं। इन शाखाओं पैदा,होती है। इसका तना आड़ा और जमीनके में हरिद्रव्य नहीं रहता। जनन पेशीसे दो अलग नीचेसे बढ़ता है, और ऊपर खड़ी शाखाएँ होती पुरस्थाणु होते हैं। एक स्त्री और दूसरा पुरुष । है। ये प्रतिवर्ष नयी पैदा होती हैं। शाखा अक्सर स्त्री पुरस्थाणु दूसरेसे बड़ा रहता । रेत और पाँच छ; फीट ऊँची होती है। अमेरिकामें इसका | रज करंडक इस पुरस्थाणु पर आते हैं। एक भेद होता है जो सबसे ऊँबा बढ़ता है। शाखाओंके बाहरी पेशी में बालूके कण होते हैं। उसकी ऊँचाई ४० फोट होती है और उसका तना| कई एकमें वह इतने अधिक प्रमाण होते हैं कि एक इञ्च मोटा होता है। इसके तनेमे थोड़ो थोड़ी | वर्तन माँजने और लकड़ी चिकनी करनेके काम में दूर पर कंडाय रहते हैं और उनके पास पास उनका उपयोग होता है। कुछ कुछमें विषैले गाल पत्ते होते हैं। सब पत्ते एक दूसरेको जोड़ पदार्थ भी तैयार होते हैं। कर कंडानके चारों ओर एक वेष्टन बन जाता है। (३) मुद्लक (Lycopodinae)-इस जातिमें पत्तोंके सिरोंपर कोने होते हैं । पत्तोंके अक्षकोणमें तीन भेद होते हैं:-लघुपर्णक ( Lycopodium) शाखा होती हैं। वे ऊपर आनेकी जगह न होनेके | वल्कपर्णक(Selagimella)और दोघेपर्णक(Isoetes) कारण इन पत्तोंके कंडानका वेष्टन फोड़कर बाहर वाहिनिमप अपुष्प वर्गकी अन्य वनस्पतियोंसे श्राती हैं। जमीनके नीचे के तनोंमें गड्ढे होते हैं। इनको उनके रहन सहन और उनके जान पेशी इसमें पोषक द्रव्य इकट्ठे हुए रहते हैं। गुच्छकी वृद्धि द्वारा पहिचाना जाता है। तनों और इसको शाखाओं में एक नली रहती है। उसके | भूलोकी द्विपद् श.खा फूटना और पत्तोंका विल- आस पासको पेशीभागमें गोल छिद्रोंकी एक पंक्ति कुल सादा होना उनको अलिंग पोढ़ीमें विशेषता देख पड़ती है, इनके बाहरी भागमें पिधानक त्वचा है। पहली दो वनस्पतियों में तना लम्बा और ( Cortex) होती है। उसमें हरिद्रव्य होता है। पत्ते छोटे होते हैं परन्तु दोघपर्णको तना छोटा इसके बाहरी भागमें कठिन पेशीजाल ( Seleren- गड्डके समान और पत्त सूजे के समान होते हैं। chyma) होता है। पत्ते बिलकुल छोटे होनेके नेचे अथवा अश्वपुच्छके समान इसकी जननपेशीके कारण उनके सामी करण ( Assimilation ) का बहुतसे गुच्छे न होकर प्रत्येक पत्ते के अक्षकोणमें काम तनेको करना पड़ता है और उसके लिये अथवा उसके शाखाके जड़के पास केवल एक एक उसमें हरिद्रव्य होता है। शोखाके कोनेपर तुरके ही जनन पेशीका गुच्छा होता है। यद्यपि कुछ समान एक भाग होता है। यह भाग जनन पेशी | वनस्पतियोंमें जनन पेशी के गुच्छे द्वारा श्राने उत्पन्न करनेवाले पर्णका होता है। ये पत्ते विशिष्ट | वाले पत्तों में और अन्य पत्तोंमें फरक होता है, रोतिसे चपटे और नीरांजनके फूल पत्तीके समान | तथापि प्रायः उनका एक भिन्न आकार रहता है । आकार के होते हैं। उनमें डण्ठल होता है, और | अश्वपुच्छके समान उनके कोनेपर एक गुच्छा उसका चपटा भाग आगे निकला रहता है। ये बनता है। पत्ते तनेपर गोलाकारमें आते हैं और उनका तुर्रा पत्तोसे तुलना करनेसे यह प्रतीत हो जायगा बनता है। प्रत्येक पत्ते के नीचे पाँचसे दस तक कि इनकी जनन पेशी के गुच्छे दूसरोंसे बहुत बड़े थैलियाँ होती हैं। उनमें जनन पेशी होती हैं। होते हैं और उनपर पेशीके अनेक थरोंके कवच प्रत्येक अनन पेशी गोल होकर उसमे पुच्छके समान होते हैं। उनपर मोटी त्वचाकी पेशीका कड़ा दो लम्बे पढे होते हैं । ये प्रथमतः उनके चारों नहीं होता। दीर्घपर्णकमै जनन पेशीके गुच्छेकी ओर लिपटे रहते हैं। सूखनेपर वे छूटते हैं । इस त्वचा सड़ती है और जनन पेशीके बाहर जाती कारण जननपेशी उड़ सकती हैं। थोड़ा सा | है। परन्तु अन्तमें एक खड़ी चीर होती हे और !
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