पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/४३

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-- अगरू ज्ञानकोष (अ) ३२ अगस मुख्य स्थान है। (६० ग०) उल्लेख किया है। प्रेबल लिखता है कि बैंडाकले अगरू ( अगर, ऊद )-इसे अंग्रेजी में बम्बई में उत्तम अगरू अाता है। इसने तथा गागली "ईगलउड" श्रीन कालम्बक' तथा देशी भाषाओं | और मवर्दीने इसके दो भेद बताये हैं। आइने- मैं अगर' 'सासी' 'आक्यायू' 'कायूगारू' इत्यादि | अकवरी में इसकी बहुतसी किस्में बताई गई हैं। जिस कहते हैं। देशी नाम संस्कृत के 'अगरू' नामसे ही | प्रकार प्राचीन आर्य बर्चके वृक्षकी छालसे कागज निकलते हैं । ऐसा भी अनुमान है कि 'अग्लोउड' का काम लेते थे उसी प्रकार आसाम निवासी वा 'इगल उड' नाम पाली भाषाके लाघू अथवा अगरू वृक्षके छिलके लिखनेके काम में लाते थे । लोहा शब्दसे सम्बन्ध रखता होगा। इसकी छालसे एक प्रकारका धागा भी तय्यार प्राप्तिस्थान-भूटान, हिमालय, आसाम, खलिया होता है किन्तु वह मजबूत नहीं होता। स्त्रियाँ के पहाड़ी टीलों तथा पूर्वीय बंगाल या मर्तबान | सिर धोने के पश्चात् बालोको सुगन्धित करनेके कीप हाड़ियों में यह वृक्ष पाया जाता है। पेड़ | लिये इसका उपयोग करती हैं। इसका उल्लेख सब ऋतुओंमें हरे भरे रहते हैं। इसकी ऊँचाई | विल्हणने अपने "विक्रमांकदेव चरित्र के प्रस्ता- ६० फीटसे १०० फीट तक होती है और घेरा ५ वना खण्डमें इस भाँति किया है-'कुर्थादनानेषु से ८ फीट तक होता है। इस पेड़से 'अगरू' | किमंगनानां केशेषु कृष्णा गरु धूपवासः" । प्राचीन पदार्थ निकलता है। वीस वर्षका हो जाने पर यह समयमै इसकी वैद्यक उपयोगिता गांवों में बहुत वृक्ष अगरू' एकत्रित करने योग्य हो जाता है। कुछ थी। भामाशयकी औषधियों में श्रागरूकी योजना लोगोका मत है कि जब तक यह वृक्ष ५०-६० की जाती है। लोगोंका विचार है कि खाँसी वर्षका नहीं होता तब तक यह पूर्ण रूप से इस इत्यादि रोगोंमें उत्तेजक पदार्थ देनेके लिये यह कार्यके योग्य नहीं होता। इस वृक्षकी सादी बहुतही उपयोगी है। इसकी छाल कडुई होती लकड़ी बहुत कीमती नहीं होती क्योंकि वह रंग है और मन्दाग्निमें उपयोगी होती है। ( वट) में फीकी, वजनमें हलकी;तथा गन्धहीन होती है। अगस-( श्रगासा) कनाड़ी धोबियोकी . खास समय परही इस वृक्ष के कुछ भागोंमें 'अगरू' यह एक जाति है और विशेषतः मैसूर राज्यमें यह नामक पदार्थ पूर्ण रूपसे फलता है। उस समय मिलती है। मद्रासके दक्षिण कनाड़ी जिलेमें तथा लकड़ीका मुल्य भी बढ़ जाता है। अगरू' का बम्बईके दक्षिणी भागमें भी इनकी बस्ती है । मूल्य उसमेसे पाई जाने वाली राल परही निर्भर | १९११ की जनसंख्यासे सम्पूर्ण भारतमे ये११६०४७ होता है। पूर्ण विकसित वृक्ष ६ से = पौंड तक | थे। उनमेसे ६७७७२ मैसूर राज्यमें और शेष 'अगरू' पाया जाता है। बहुत उत्तम होने पर ही मद्रास कुर्ग इत्यादि प्रान्तोम है। कदाचित् यह वृक्षका मूल्य ३०७) रु० तक होता है। पेड़का वह जाति द्रविड़ोंकी वंशज है। इनकी गणना शूद्रोम भाग जिसमें अगरू उत्पन्न होता है बहुत ही टेढ़ा की जाती है। अतः इनके धार्मिक संस्कारोंमें मेढ़ा होता है। इस वृक्षकी वह लकड़ी जिसमें | बहुधा ब्राह्मण पुरोहित नहीं जाते । 'अगरू' नहीं होता १) से ३) सेर तकके भाव इनमेंसे ३०१४१ तो अन्य धन्धे करते हैं और विकती है। अगरू' से युक्त लकड़ी का रंग कुछ | १३४४८ अपने खानदानी पेशेही को कर रहे हैं । कुछ काला होता है। वह १६) से २०) सेर बिकती । इसके अतिरिक्त ये खेती भी करते हैं । भाषाओं है। श्राइने अकबरीमें इस वृक्षसे 'चूवा' नामक की भिन्नतासे इनके दो भाग हो गये हैं:-(१) सुगन्धित पदार्थ निकालनेकी विधि वर्णन की | कनाडी तथा (२) तैलंगी। हालहीमै ये महाराष्ट्र में श्राये हैं। इससे इनका अभी तक हिन्दोस्तानी प्राचीनकालसे ही प्रायः सभी सभ्य देशोमें | धोवियोंसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । तैलंगी तथा सुगन्धिके लिये यह व्यवहारमें लाया जाता है। कनाड़ी जातियोंमे भी रोटी बेटीका व्यवहार इसका वैद्यक दृष्टि से भी बहुत कुछ उपयोग है। प्रचलित नहीं है। तैलंगी अगसौमें और भी उप- धूपवत्ती बनाने के काममें भी यह श्राता है । सिल- | विभाग हैं। इनमेंसे एकसे अधिक ब्याह करनेकी हाटमै इसका इत्र भी निकाला जाता है । गुलाबके अनुमति है। इसके अतिरिक्त इस जातिमें बाल- समान इसका इत्र उत्तम तथा कीमती होता है। विवाह और प्रौढ़ विवाह भी होता है। हरेक स्त्री मार्कोपोलो गार्सिया डी मोर्टा, वारथेमा, बारबोसा को आजीवन अविवाहिता रहनेका अधिकार है। लिन्स्कोटेन, हर्बर्ट इत्यादि पाश्चात्य यात्रियोंने | वर अथवा उसके पक्षवालोको बधुके लिये मूल्य अगरू ( Lagle or Polumbac_wood ) का | देना पड़ता है। भिन्न भिन्न श्रेणी में मूल्य घटता 1 । -- पू