पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/४८

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- अग्नि ज्ञानकोष (अ)२८ अग्नि भी होमाग्नि' रखनेकी प्रथा थी। प्राचीन इटालियन ' बताया है। अग्निका संक्षिप्त पौराणिक इतिहास और ग्रीक लोग भी भारतवासियोंकी तरह होममें इस प्रकार है। डाली हुई सामग्रीको देवताओं तक पहुँचाने के लिये स्वयंभू भन्चनरम ब्रह्माका मानस पुत्र दन- अग्निको ही साधन समझते थे। अर्थात् अग्नि प्रजापति था। उसकी सोलह कल्यामै म जो कुण्डमें डाली हुई वस्तु देवताओं तक पहुंच : स्वाहा नामकी थी. वही अग्निकी स्त्री थी । उसको जाती है यह उनकी भी धारणा थी। "स्वरोचिष' नामक पुत्र और सुच्छाया नामकी लगभग सबही संस्कृतियों में अग्निकी उत्पति कन्या हुई थी ! अन्य देवताओं की अपेक्षा कुछ विशेषता रखती है। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव थे : उसके शिष्ट नामक वैदिक हिन्दूधर्म तथा ज़रतुष्ट्र धर्ममें अग्नि देवता पुन को वह कन्या व्याही गई और उसका गुन के लिये विशेष स्थान है। संसारके और भी धर्म : स्वारोचिए दूसग मनु हुश्ना। ग्रंथोके अवलोकनसे यह स्पष्ट है कि जरतुष्ट्र और इसके अतिरिक्त पावक, पचमान और शुचि हिन्दूधर्ममें ही अग्निको प्रत्यक्ष देवता माना है। तीन श्रीर भी पुत्र थे। वे 'अग्निदेवताक भिन्न- अग्नि की उत्पत्तिके विषय में भिन्न-भिन्न कल्पनायें जिन पंतालीस कार्य सम्पादन करने के कारण हैं। सूर्य: काँगरू ( जानवर विशेष ), ओक वृक्ष भिन्न-भिन्न नामोंसे प्रसिद्ध हैं। अथवा ऐसी ही नैसर्गिक वस्तुओं द्वारा अग्निकी चालू (वैवस्वत) मन्वंतरी वरून ब्रह्माको उत्पति मानी गयी है। भलीभांति विचारनेसे ऋत्विज बनाकर यश किया। उससे तीन ऋषियों यह स्पष्ट हो जाता है कि कहीं भी श्रग्निकी उत्पत्ति | को ब्रह्मदेवने पुत्ररूपसे ग्रहण किया था । अादवने अग्नि देवता द्वारा नहीं मानी गयी है। विशेष अग्निको पूर्व और दक्षिण दिशा का स्वामित्व महत्वपूर्ण होने के कारण ही अथर्ववेद के प्रणेताओं | दिया था इसीसे उस दिशाके कोने का श्रग्नेय ने इसको देवता का रूप दिया है शोर दैवी गुणों दिशा कहते है की इसमें भरमार कर दी है। प्रामिथिमस की भी पहले श्वतकी गजाने अगणित यज्ञ किये। ऐसी ही कथा है। जिसके हचि भक्षण करते करते इसको श्रापचन अग्नि (भारतीय)-'अग्नि', इण्डोयोरोपि- हुआ। तब अग्नि उसका उपाय पूछने के लिये थन शब्द होते हुए भी भारतमें इसी नामसे प्रच- ब्रह्माके पास गये। उस समय द्वापरयुग समाप्त लित है। इसकी उपासना भी भारतियोमे बहुत प्रच- हो चुका था। यह जानकर ब्रह्माने कहा कि प्रस्तुत लित है। इसके वैदिक खरूप का सारांश तो उपर भूमि पर कृष्णार्जुन अवतार हुआ । उनके पास दिया ही जा चुका । किन्तु पौराणिक कालमें | जाकर खांडववन नामक धन भक्षणके लिये मांग । अन्य देवताओं की तरह इसके सम्बन्धमें भी | उसका भक्षण करनेसे तू अपनी ब्याधिसे शीत्र अनेक कथाये और उप-कथायें प्रचलित हो गई | मुक्त हो जायगा। इसलिये अग्मिने ब्राह्मण वेशमै थीं जिससे इसको भी सगुण स्वरूप दिया जाने आकर कृष्णार्जुनसे खांडववन भक्षणार्थ भांगा। लगा। वह्नि, अनल, पावक, वैश्वानर अब्जहस्त, उस समय दोनोने मिलकर 'तथास्तु' कटा --- धूमकेतु, हुतभुज, क्रॉर्च, रोहिताश्व, च्छागरथ, | किन्तु फिर वे बोले कि हम लोगों के पास इस जातवेद, सप्तजिह्व, तोमरधर, इत्यादि अनेक | योग्य रथादि की न्यूनता है, जिसमें अग्निने नाम इनको दिये गये। अंगिरस पुत्र, पितरो का | वरुणुसे कपिध्वज-युक्त एक दिव्य पथ श्रीर राजा, मरुत शांडिल का पौत्र; तामस मन्वन्तरके "गांडिव” धनुष भागकर अर्जुन को और सात तारोमैसे एक नक्षत्र, इत्यादि नामोंसे पुराणों वजनाथ" नामक" चक्र ार 'कोमादिक" में इसका उल्लेख किया है, और अनेक भूमि- | नामक गदा कृष्ण को दी। इससे ये दोनों मंतुष्ट कायें दी गयी है। हुए और उन्होंने उसको वनमें प्रवेश कर वनको अग्निके खरूप भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न भक्षण करने की श्राशा दी। इन्द्र को यह विदित दिखाई देते है। सात हाथ, चार सींग, सात | होतेही वह उसका निवारण करने के लिये दौड़ना जिह्वा, दो सिर, तीन पैर इत्यादि वैश्वदेवमै श्राया। परन्तु कृष्णार्जुनने उसका पराभव कर उसे वर्णन किया है। किन्तु हरिवंशमें ऐसा नहीं है। लौटा दिया । श्रग्नि १५ दिनतक बनका भक्षण कर उसमें चार हाथ वाला, मेढ़े पर बैठा हुआ अथवा व्याधिसे मुक्त हुना। वायुके सात पहियों-वाले-रथमें बैठने वाला, सिर "हिश्र धर्मकी अग्नि-पू-अग्नि श्रथवा यक्ष- पर धुएँ का मुकुट धारण करने वाला-अग्निको कर्मों का उल्लेख "हिंदू" धर्म-नंथम बहुत कम है।