पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अग्निपुराण ज्ञानकोश (अ) ४.३ अग्निपुराण और अनुग्रह ऐसे ५ भाग कल्पित किए गए हैं। पूजन । ०४८ मै केशवादि चौबीस नामोकी तिर्यक् स्रोतस ही तिर्यक् योनिमें जन्मे हुए प्राणिक मूर्तियोंके स्तोत्र । अ० ४६ मै दशावतार प्रतिमा विषयमें है। ऊर्ध्व स्रोतससे तात्पर्य देवसर्ग, और | लक्षण । ०५० मै चंडी आदि देवियों के प्रति- श्रर्वाक स्रोतस भाने मनुष्य सर्ग है। इस भाँति माओंका लक्षण। श्र०५१ में सूर्यादिग्रह देवता विकृत ५ और तामस ३ मिलकर सर्ग और प्रतिमा लक्षण । अ० १२ में चौसठ योगिनी नयाँ सात्विक कुमार सर्ग है । इसलिये ब्रह्मदेवसे प्रतिमा लक्षण। अ० ५३ में लिंगादि लक्षण । उत्पन्न हुए जगतके मूल-भूरु नौ सर्ग हुए । अ०५४ में लिंगके प्रमाणका व्यक्ताव्यक्त स्वरूप । देवोपासना और मन्त्र श्र२१-३८-अ० २१ में अ०५५ में पिंडिका लक्षण । अ० ५६ में दश विष्णवादि देवताओंकी सामान्य पूजा दी हुई है। दिपाल योग वर्णन। अ० ५७ में कलशाधिवास इसमें देवताओंके मन्त्र बीजोका विधान है। अ० विधि । अ०५८ में स्नपन विधि । श्र०५४में अधि- २२ में पूजाधिकारके लिये सामान्य स्नान-विधि है। वालन विधि। ०६० में वासुदेवादि देवताओं अ० २३ में आदिमूादि पूजा-विधि । अ० २४ में | की सामान्य प्रतिष्ठा। श्र० ६१ में अवभृत स्तान, कुण्ड निर्माणादि, अग्निकार्यादि कथन तथा षोड़श ! द्वार प्रतिष्ठा ध्वजारोपण विधि। श्र० ६२ में संस्कार। श्राः २५ मै वासुदेवादि मन्त्र लक्षण। लक्ष्यादि देवता प्रतिष्ठाकी सामान्य विधि । २६ मुद्रा लक्षण । अ०६७ में शिष्योंको ६३ में विष्णवादि देवता प्रतिष्ठा सामान्य विधि, दीक्षा देनेकी विधि। अ० २८ में प्राचार्यादि पुस्तक लेखन-विधि। इसको किस प्रकार लिखना अभिषेक वर्णन। अ० २६ में मंत्र साधन विधि, चाहिये इसका वर्णन नहीं है, बल्कि उपर्युक्त नार- सर्वतोभद्रादि लक्षण तथा विधान। अ०३०३१ सिंह मंत्र सफेद अथवा सुनहली स्याहीसे नागरी में अपामार्जन विधान । अ० ३२ में निर्वाण भाषामै लिखना चाहिये इतना ही उल्लेख है। दीक्षासिध्यर्थ संस्कार-वर्णन । अ० ३३।३६ में स्थापना कर्म-१० ६४ में कूप, वापी, तडाग पवित्रारोपण विधि, पूजा और होम। (अधि- प्रतिष्ठा विधि । अ० ६५ में सभादि स्थापन विधि । वासन और दूसरे देवताओंके सम्बंध पवित्रा- | अ० ६६ मै जमीनकी परीक्षा कर वहाँ वास्तु भाग रोपण विधि उत्तर खंड १०८ के पद्मपुराणमें | करना चाहिये। यह सभा चौक अथवा ग्रामके और इसमें कुछ फरक है। यह पवित्रारोपण प्रारंभमें करना चाहिये। सूनी जगहमें न होनी विधि श्रावणमें करनेको कहा है) अ० ३८ में चाहिये। इस सभाम चार, तीन, दो अथवा एक देवालय निर्माणफल, निर्माणारंभ, देवालय निर्माण । शाल या कोने छोड़ने चाहिये। करनेके लिये जमीनकी परीक्षा । यह परीक्षा अर ६६ में देवता सामान्य प्रतिष्ठा। पाँच अथवा छः रात्रिमै करनेको कहा है। प्राण ६७ में जीणोद्धार विधि। अ०६८ उत्सव विधि। प्रतिष्टा करने लायक ब्राह्मण कौन है, इसका अ०६६ में मूर्तियोंको नहलानेका विधि। अ०७० ग्रंथोक्त विचार इस प्रकार है कि मध्यदेशका : में वृक्ष प्रतिष्ठा। वृक्षोंको अलंकृत करके सोनेकी ब्राह्मण प्राण-प्रतिष्टोके योग्य है। कच्छ, कावेरी, | सूई चुभोना चाहिये और तदुपरान्त पूजा करना कोकण, कलिंग, कांची और काश्मीर देशके ब्राह्मण चाहिये। अ०७१ मै गणेश पूजा। अ० ७२ में प्रतिष्ठाके अयोग्य हैं। भूमिके टीलोंको तोड़ और स्नान विधि। अ०७३ में सूर्य पूजा कथन, सूर्य भूमिको चौरस करके नागना चाहिये। उसके ! को राख लगाकर पूजन करना चाहिये । अ०७४- वाद अष्टदिशाओं की तरफ सत्त, उड़द, हलदी ७५ में शिव-पूजा तथा होम-विधि। जप करते इत्यादि द्रव्यको फेकना चाहिये जिससे राक्षस समय चर्मसे वेष्ठित खड्ग का चंदन फूल अक्षत, पिशाच इत्यादिका नाश होता है। यह जमीन दर्भ इत्यादि से पूजन करना चाहिये। याग की देवस्थापनाके योग्य होती है। इस भूमिको सामग्रीका इन्तजाम रखना आवश्यक है। हाथमें चौरस करनेके लिये बैलोसे हल चलवाना भाव- श्रयपात्र लेकर अग्नि ग्रहमै जाना चाहिए और उत्तर श्यक है। इस विषयका बहुत कुछ मत्स्यपुराण की ओर मुंह कर कुण्ड पर प्रोक्षण करना चाहिये। के अ०२५२ में उल्लेख किया गया है। यह ग्रोक्षण अनमन्त्रसे करना चाहिए । बर्मासे उपासनामिन वास्तु शास्त्र ३९-३०६-अध्याय ३६ | अभ्युक्षण, खड्गसे जमीन खोदना, वर्मासे चौरस से ४५ तकका विचार वास्तुशास्त्र विषयक विचार कर उसपर पानी छिड़कना, वाणके अग्रभागसे है। इसमेंका वहुत सा भाग कठिनतासे समझमें मट्टीका ढेला फोड़ना, त्रिसूत्री परिधान वर्मासे इस आता है। श्र०४६-४८ में शालिग्नाम लक्षण और प्रकारकी पूजाको तान्त्रिक पूजा समझा जाता है । श्रय