पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/५५

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अग्निपुराण ज्ञानकोश (अ) ४५ अग्निपुराण मंत्र । अ० १४६ में अष्टाष्टक द्रव्य । अ० १४७ में अ० २५७ में प्रेतके संबंध में अशौच निर्णय । त्वरिता पूजा । अ० १४८ में संग्राम विजय पूजा । अ० १५८ में गर्भस्राव का अशौच निर्णय । इस श्र०१४8 में लक्षकोटि होम। ग्रन्थकार का कथन है कि अस्थि संचयके लिये वर्णाश्रमधर्म-अ० १५१ में मन्वन्तर, अ० १५१ मै ४,५.७, ये दिन अनुक्रमसे लेने चाहिए। परन्तु इतर व के धर्म वर्णन। सब धर्मों का श्रवण पराशर माधवमै ३।५७8 दिन माने गये हैं, और करना चाहिये । राजाओं पर प्रेम रखना चाहिये। ऐसा मत है कि अस्थिसंचय गोत्रजोंके साथ इसके अतिरक्ति अहिंसा, सत्य इत्यादि धर्म सार्च | करना चाहिये । ४ के विषय में उल्लेख विष्णु वर्णिक हैं। हत्यारों का वध करना चांडालों का स्मृतिके सदृश ही किया है। अ० १५६ में संस्कृ- काम है । स्त्रियों पर उपजीविका करना और उनका | तादि शौच निर्णय। अ० १६० में वानप्रस्थाश्रम रक्षण करना यह वैदेहिकोका काम है । अश्व सारथ्य वर्णन । अ० १६१ में यतिधर्म। अ० १३२ में धर्म का काम सूतका है। व्याधका काम करना पुल्कसाका शास्त्र कथन । अ० १६३ में श्राद्ध कल्प वर्णन ! काम है । राजाकी बंशावली गाना अथवा स्तुति करना । अ० १६४ में नवग्रह होम नानाविध वर्णन, माटो (मागधो ) का कर्तव्य है । रंगावतरण और । “न स्त्रो दुष्यति जारण . .....बलात्कारोप शिल्पपर जीवन करना यह संतरासौ का काम है। ! भुक्ताचेत्" बलात्कार से उपभुक्त स्त्री अथवा शत्रु गाँवके बाहर रहना और मृतकोंके वस्त्र धारण | हस्तगत स्त्री त्यागना नही चाहिये। वह ऋतुकाल करना यह चांडाल का काम है। चांडाल में शुद्ध हो जाती है। कुछके मतसे योगको व्याख्या अस्पृश्य हैं। "मन और इन्द्रिय का संयोग ही है' (विषयेन्द्रिय कष्टमें पड़े हुए गौ, ब्राह्मण, स्त्री, बालकोंके संयोगे काचिद्योग वंदतिवै)। परन्तु ग्रंथकार इस लिये जो अपनी देह तथा सर्वस्व अर्पण करता है मतसे बिलकुल सहमत नहीं है। असवर्णसे जवतक वह इन बाह्यबर्गौसे श्रेष्ठ समझा जाता है और स्त्रीको गर्भ रहे तभी तक वह अशुद्ध है। उसको सिद्धि प्राप्त होती है। गर्भ नष्ट हो जानेपर रजके बाद वह स्त्री शुद्ध गृहस्थ वृत्ति-अ० १५२ में गृहस्थवृत्ति । यद्यपि होती है। (अशुद्धातु भवेत् नारी यावत्छल्यं न ब्राह्मणोको आजीवन अपनी वृत्ति और धर्म कमी मुञ्चति ) अ० १६६ में वर्ण धर्मादि कथन अ० नहीं छोड़ना चाहिये तथापि आपत्ति कालमै १६७ में ग्रह यज्ञ अयुत्लक्ष कोटि होम । श्र० क्षत्रिय, वैश्य, अथवा शूद्र वृत्तिका भी आश्रय १६८ । १७४ में महापातकादि कथन और करना धर्म से असंगत नहीं है। इसके अतिरिक्त प्रायश्चित्त। अन्य वाह्य वृत्तिका आश्रय नहीं लेना चाहिये। व्रत-१७५ से २०८ अध्यायतक बतौका ही आपत्ति कालमें कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा, और वर्णन है। अ० १७५ में व्रत परिभाषा। अ० १७६ व्याज बट्टा ब्राह्मणों की वृत्तिका साधन हो सकता में प्रतिपदावत, अग्निवत । अ० १७७ में द्वितीयावत है, किन्तु गोरस, गुड, निमक, लाख और मांस अ० १७८ में तृतियावत । अ० १७६ में चतुर्थीवत । नहीं बेचना चाहिये। भूमि खोदने औषधि तोड़ने अ० १८० में पंचमी व्रत । अ० १८१ में षष्टीव्रत । और पिपीलिकादिको का नाश करनेसे जो पाप अ०१२ में सप्तमी व्रत । अ० १८३१८४ में अष्ट- होते हैं उनका नाश यागादिक करनेसे हो जाता मीव्रत । श्र० १८५ मैं नवमीव्रत। अ० १८६ में है । परन्तु इस यज्ञका फल किसानों को भगवानकी दशमीव्रत। अ० १८७ में एकादशीव्रत। १८८ में पूजासे ही प्राप्त होता है। आठ बैलोसे एक हल द्वादशीवत । अ० १८४ में श्रावण द्वादशीवत । अ० जोतना उत्तम, ६ से मध्मम, ४ से अधम और दो | १६० मे अखंड द्वादशीव्रत । अ० १६१ में त्रयोदशी से अधमाधम कहा गया है। इन किसानोंको क्रमसे व्रत । १९२ में चतुर्दशी व्रत । अ० १६३ में शिव- धार्मिक, जीवितार्थी, नृशंस और धर्मघातक कहा | रात्रिवत । अ० १६४ में अशोक पूर्णिमावत । अ० गया है । अ० १५३ मै ब्रह्मचर्याश्रमधर्म । अ० १५४ ! १६५ में वारवत । अ० १६६ में नक्षत्रव्रत-नक्षत्रको में विवाह । विवाह के समय क्षत्रिय स्त्रीको बाण, | पुरुष मानकर पूजा करना चाहिये। श्र० १६५ वैश्य स्त्रीको चाबुक और शुद्र स्त्रोको हाथमें कपड़ा में दिवस व्रत। अ० १६८ मै मासिकवत । अ० पकड़ना चाहिये। अपत्यविक्रय का कोई भी ! १६8 में अनेकवत । अ० २०० में दीपदान व्रत । प्रायःश्चित्त नहीं है। "नष्टे मृते प्रत्रजिते" यह इसकी तुलनाके लिये ऐसी बत-संबन्धी कथाओं पाराशरस्मृतिका श्लोक यहाँ भी दिया हुआ का संग्रह पाठकों को बतकौमुदी इत्यादि धार्मिक श्र० १५५ मै श्राचार। अ० १५६ में द्रव्य शुद्धि। ग्रंथोमें मिलेगा। इस अध्यायमें 'देविका' नदीका ।