अग्निपुराण ज्ञानकोश (अ) ४८ अग्निपुराण इसमें गिरिदुर्ग महत्वका है, क्योंकि यह अभेद्य | पाठवां हिस्सा दंड वरूपमें लेना चाहिये ( अनुतं होना चाहिये। तु वदन दंडयः सुवितस्यांशमष्टमः ।) नष्ट शेष दुर्ग शत्रु भेद सकते हैं और जीत भी स्वामिकमृत्थं गजा-व्यब्द निधापयेत् । ) लावारिस सकते हैं (सर्वोत्तमं शैलदुर्गमभेद्यंचान्यभेदनम् ) | का धन राजाको अपने पास तीन वर्ष अमानतमें उपर्युक्त प्रदेशमें शहर बाज़ार तथा मन्दिर आदि : रखना चाहिये। तीन वर्षमें यदि उस धनका बनानेकी व्यवस्था करनी चाहिये। वारिस मिल जाय तो उसकी पूछ-ताछ कर उसको अ० २२३१२५ में राजधर्म। महसूल. और काम | लौटा देना चाहिये। वारिस का निर्णय उसके रूप काजको व्यवस्था ठीक रखनेके लिये राजाको और संख्यासे करना चाहिये ( ? )। तीन वर्षके अधिकारीगण नियत करने चाहिये। गाँवका एक बाद लावारिस धन राजाको कोषम जमा करना मुख्याधिकारी होना चाहिये उसपर इस गांवके | चाहिये। नाबालिग वारिसका धन गाजाको अपने अधिकारीको देख भालके लिये रखना चाहिये। पास वारिसके बालिग होने तक रखना चाहिये। दश प्रामाधिकारी पर सौ ग्रामके अधिकारीको वालिग की व्याख्यो बाल्यावस्था बीतनेके प्रभुत्व देना चाहिये। इसके बाद प्रान्ताधिकारी यादकी अवस्था है। जिस प्रकार गजाको नावा- होना चाहिये। इसी प्रकार बड़े बड़े अधिकारियों लिग का धन रक्षण करने का अधिकार है उसी की योजना करनी चाहिये । प्रकार बालपुत्रा ( जिसका पुत्र छोटा हो) उनके वेतन उनके कामके अनुसार होने निष्कुला, अनाथ, पतिवना, विधवा, (श्रातुग) चाहिये। अधिकारी वर्गकी ब्यवस्था ठीक ठीक बीमार और जीवंती' (?) इन स्त्रियोंका भी चल रही है अथवा नहीं, यह समाचार गुप्तचरों रक्षण करना चाहिये। उनके ( वृत्तिकी) उप- के द्वारा राजर्जाको मिलता रहना चाहिये। ग्रामका जीविका को जाबावदेही भी गजापर ही है। अर्थ देहात समझना चाहिये। गांवके झगड़ोंकी उपर्युक्त प्रकार की स्त्रियोंकी जिन्दगी खराब करने व्यवस्था प्रामाधिकारीको करनी चाहिये।यदि तय वाले बांधवों को राजासे दण्ड मिलना चाहिये। न हो तो दशग्रामाधिकारीको करनी चाहिये। यह दण्ड चोरके समान होना चाहिये। इसी तरह राजा तक पहुँचकी व्यवस्था होनी जेल के अधिकारियों का रोजानेका खर्च चौरसे चाहिये। इस व्यवस्थाका मूलतत्व देशकी सुर- बरामद हुए द्रव्यसे चलाना चाहिये। यदि चोरी क्षता है। सुरक्षता ही राजाकी आर्थिक संपत्ति न हुई हो और जो भूटही “चोरी हुई है' ऐसा है, और आर्थिक संपत्तिसे ही प्रजामें अपने पुरु- | कहे तो उसे "निसार्य' नामक दण्ड देना पार्थ और भयका सञ्चार होता है। राष्ट्रको कष्ट । चाहिये । ( अहते योहतयन्नतःसार्यो दण्ड पहुँचानेवाला राजा नरकमें जाता है। एवसः।) व्यवस्था-राजाको श्रोयके प्रमाणसे छठवां घरमै मिला हुश्रा द्रव्य मालिक यदि गजा को हिस्सा लेना चाहिये ( राजा षड्भागमादत्ते सुक-! दे तो वह राजाका ही होता है। स्वगष्टके व्यापार तादि दुष्कृतादपि ) । सम्पूर्ण वसूली केवल इतनी | पर कर होना चाहिये। परराष्ट्रके व्यापार ही होनी चाहिये। अर्थात् ऊँचे और नीचेका | पर लाभ हानिके अनुसार कर लगाना चाहिये। भेद इसमें न होना चाहिये। कर शास्त्रानुसार (शुल्कांशं परदेशाच क्षयव्यय प्रकाशकम् झाल्या लगाने चाहिये। कर अथवा वसूल हुए द्रव्यको संकल्पयेत् ।) व्यापारी को जितना लाभ हो उस दो भागोंमें राजाको वाँटने चाहिये । एक भाग कोश | पर . कर लेनाही चाहिये । में रखना चाहिये । (कोशे प्रवेशयेदर्द्ध, नित्यं यदि ब्यापारी उसे न दे तो वह दण्ड योग्य चार्द्ध द्विजंददेत । निधि द्विजोत्तमः प्राप्य गृह्णी है। नौकरी करने वालों पर जो कर लगना चहिये यात् सकलं तथा ) शेष एक भाग ब्राह्मण को | उसका उल्लेख टीक ठीक नहीं पाया जाता । इसी देना चाहिये। लिए ठीक ठीक कुछ भी निर्णय नहीं किया जा ब्राह्मणको उस द्रव्यमेसे क्रमसे४, - और १६ सकता। स्त्रियों और सन्यासियों पर नौका वाँ भाग योग्यता, अयोग्यताके अनुसार ब्राह्मण | व्यवहारके लिए कर नहीं लगता। यदि नौका क्षत्रिय, और वैश्य को बांट देना चाहिये (चतुर्थ- ( दासों की) केवटों की असावधानीसे नष्ट हो मष्टमं भाग तथा षोडशक द्विजः । वर्णक्रमेण जाय तो उसकी हानि राजा का केवटसे वसूल दद्याच निधि पात्रेतु धर्मतः।) करनी चाहिये । इन सब वानांसे यह स्पष्ट है कि असत्य बोलने वालेसे राजाको उसके द्रव्यका आज कलकी ही तरह ठेकोंके नीलाम का सर्व
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