श्री पुराए ज्ञानकोष (अ) ५० अग्निपुराण के समान अर्थचिंतन, सिंहके समान पराक्रम, श्राफवाह उड़ाता है राजाको उसे दंड देना चीतेके समान लूट, खरगोशके समान गमन, चाहिये। भूट बोलना अथवा दूसरे को झूठ सूभरके समान दृढ़प्रहार, मयूरके समान चित्रा- बोलनेके लिये उत्साहित करना-इन दानाको कार, धोडेके समान दृढभक्ति, कोकिल के समान पहले से दुगुनी सजा देनी चाहिये । झूठी गवाही श्रालाप, काकके समान शंका, ये सब बातें राजामें ! देनेवालेको पहलेकी तरह ही शिक्षा करनी विद्यमान होनी चाहिये। राजाको अज्ञात वस्ती , चाहिये। ब्राह्मणकी शिक्षा करना उसे अपने देश में रहना चाहिये परीक्षा किये बिना भोजन और से निर्वासित कर देना ही उपयुक्त है। यदि किसी शयन न करना चाहिये, अज्ञात स्त्रीकी भेट न लेनी | की रखी हुई अमानत का काई उपभोग करे तो चाहिये, और अज्ञात नाव में भी न बैठना चाहिये। ! उससे दण्डस्वरूप उसका मूल्य दिलवाना चाहिये। राजाके राज्यकी शोभा और दृढ़ता केवल | अमानत दबानेवाले और विना श्रमानत रखे ही प्रजाके अनुराग और प्रेम पर ही अवलम्बित है। मांगनेवाले को चोरके समान इंड देना चाहिये । सामादि उपाय कथन--श्र.२२६ के प्रथम चार जो व्यक्ति बिना पूछे दूसरे मनुष्यके मालको श्लोकोमें देव और पुरुप बादमें पुरुषवादको अग्र-बेचता है वह भी चोर ही के समान दण्डका भागी गण्यत्व दिया गया है। शत्रुका दमन करनेके ! है। दूसरेके धनको रखकर जो व्यक्ति उसका व्याज लिये चार उपाय इस प्रकार है -साम, दाम, दंड | (सूद ) नहीं चुकाना वह भी उपर्युक्त दण्डयाग्य और भेद । सामके दो भेद हैं तथ्य और अतथ्य । है। किसीको धन देनेका वचन देकर यदि उसे अतथ्यका अर्थ आवश्यकतासे अधिक साम पूरा न करे तो वह व्यक्ति श्रार्थिकदण्डकं योग्य ( शांति ) है। यह साम साधुपुरुषोमें अधिक है। जो मनुष्य दुसगेसे विना वेतन कायं कर- होता है। इसीसे साधु लोगोंको दुष्टोंसे कष्ट वाता है उसपर - कृष्णल जुर्माना होना चाहिये । पहुँचता है। जो मनुष्य अकारण या रिना पूर्व सूचनाके दूसरे प्रकारका आवश्यकतानुसार प्रसंग नौकर का अपनी नौकरीसे अलग करता है वह भी आने पर प्रयोग करना चाहिये । जिनमें | पूर्वाकथित दण्डाधिकारी है। दास विक्रयके परस्पर द्वेष हैं, या एक दूसरेसे अत्यन्त क्रोधित व्यवसाई बेचे श्रथवा खरीद हुए दासको दस अथवा अपमानित लोगो में भेद करना बहुत दिनके भीतर वापस लौटा देने ओर लौटा लेने के ही सरल है! जातिमें भेद उत्पन्न करानेवाले लिय एक दूसरेको बाध्य कर सकते है। यदि कोई को बड़ी सावधानीसे देखते रहना चाहिये । कन्या बरको, बिना उसके गुणदोपोंके विवेचनक सभासदो, अथवा प्रधानपुत्रादिकोंके क्रोधको ही अथवा धोखसे समर्पण की जाय तो कन्या वशमै करके शत्रु पर विजय प्राप्त करना चाहिये। अविवाहित ही समझी जायगी। यदि कोई इन चारों उपायों में दाम अति उत्तम है। उपर्युक्त | अपनी कन्या एक मनुष्यको देकर फिर उसी कन्या तीन उपायोसे यदि शत्रुका दमन न हो तब दंडका | का विवाह दुसरेके साथ करे तो उसको उत्तम प्रयोग करना चाहिये। दंडके समय सावधान दण्ड अर्थात् १००० एरण (परण-श्राना) जुर्माना रहना चाहिये। श्रदंड्यो को दंड न करना । करे। यदि कोई व्यापारी लोभवश किसी वस्तु चाहिये और देडयों को क्षमा न करनी चाहिये। ! को घूस लेकर बेचे ता उस ६०० मुवर्ण मुद्रा दण्ड श्र० २२७ में दण्ड प्रण्यन (जुरमाला)- जुर- स्वरूप देना अनिवार्य होगा। जा व्यक्ति गो रखने माने के लिये सुवर्णके एरिमाणका प्रयोग किया। के हेतु किराया और पालनके लिये खर्चा लेकर गया है। उसका वर्णन इस प्रकार है-तीन | उसकी रक्षा नहीं करना बह १०० सुवर्ण मुद्रा जव-कृष्णल; पाँच कृष्णलम्माष; छः कृणल= | राज्यदगड देनेको बाध्य है। कषार्थ, सोलह भाष-सुवर्ण; चार सुवर्ण निष्क; गाँधका घेग १०० धनुष अर्थात् ३०० सौ दस निष्क-धरण। हाथ होना आवश्यक था। शहर का घेग दुगना, दंड (जुरमाना ) कमसे कम (प्रथम) २५० / तिगुना, अथवा कुछ ही अधिक हाना चाहिये । पण होना चाहिये (मध्यम) ५०० होना चाहिये इसीसे ज्ञात होजाता है कि तत्कालीन नगर और ( उत्तम) अधिक सेअधिक १००० पण होना कितने छोटे होते थे। चाहिये । (असीतिभिर्वराटकैः पण इत्यमि धेरेके चारों ओर वालियुक्त श्रनाजके पोधे धीयते) पण एक आनेके बराबर है। रखना अनिवार्य है। उसकी रक्षा हेतु थाड़ा चोरी न होते हुए भी चोरी हुई ऐसी जो झूठी | इतना ऊँचा हो कि ऊँट भी उसे न देख सके।
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