पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अग्निपुराण शकुन के अशिपुराण ज्ञानकोष (अ) ५२ कहे हुए दण्डका विधान करे। गुरु-पत्नीगमन युद्ध-याना-प्रा० २२८ से २३३ में युद्धके लिये करने वाले, सुरापान करने वाले, चोरी करने वाले, निकलने के पूर्व अथवा उसके बादके शुभा-शुभ ब्रह्महत्या करने वाले, महत्त्पातकियोंको अनुक्रमसे चिन्होंसे जय-पराजय निर्णय करना। ०२२८ भग. सुरापान, श्वपादके चिह्न उनके मस्तक पर बनाने में युद्ध याआ। योद्धा हृष्ट-पुष्ट होने चाहिये। चाहिये। भागेके श्लोकसे ऐसा अनुमान किया जिस दिशामें भूकम्प होगा वह दिशा पराजय देने जाता है कि यह दण्ड ब्राह्मणोंको ही दिया जाना | वाली होती है। उसी प्रकार केतुविषयक शकुनों चाहिये। क्योंकि आगेके श्लोकमें (शूद्रादीन्धा- को जानना चाहिये। शरीर स्फुरण, सुस्वप्नदर्शन तयेत् राजा पापान्विप्रान्प्रवासयेत् ॥ महापातकी से गजाको जय प्राप्तिकी आशा करनी चाहिये । नांवित्तं वरुणायोपपादयेत् ।) राष्ट्रमें नियत किए ऋतुके अनुसार सेनाकी योजना वर्षाऋतु हाथी हुए अधिकारी या सामन्तोंसे मिलकर चोरी और पैदल जिसमें अधिक हों ऐसी सेनाकी करने वाले चोरोके और उनसे मिल जाने वाले योजना करनी चाहिये। हेमन्त और शिशिर अधिकारियों के हाथ काटने चाहिये श्रथवा शूली | (मार्गशीर्षसे फाल्गुन ) में रथ और घोड़े जिसमें पर चढ़ाना चाहिये। गांवमें जो चोगेको वेतन अधिक हो ऐसी सेनाकी योजना करनी चाहिये। देते हैं अथवा धूर देते उनको ऊपर लिखे बसन्त ऋतु अथवा शरद ऋतुमें चारों प्रकार की दण्ड देने चाहिये । तडाग, देवालय, श्रागार तथा सेनाकी योजना करनी चाहिये। सेनामें विशेषतः राजमार्ग भ्रष्ट करनेवालेको दंड करना चाहिये । | पैदल अधिक होने चाहिये। मासिककर समय पर न चुकाने वाले को ५०० युद्ध और शकुन-श्र.२२६ में स्वप्न, शुभा-शुभ, पण दण्ड देना चाहिये। दुःस्वप्न शान्ति । श्रर २३८-३२ में समके साथ जो विषम चलाता है उसे प्रकार वर्णित है। समय, देश, दिशा, कारण, "मध्यम' दण्ड देना चाहिये। व्यापारियोंसे धूस शब्द और जाति ये शकुन उत्तरोत्तर अधिक फल लेकर अवरोध करनेवालेके लिये भिन्न-भिन्न प्रकार | देनेवाले हैं। से "उत्तम दण्डका विधान होना चाहिये । द्रव्यको गत्रिचर, दिवाचर और उभयचर पशुपक्षियों दोष देने वाले और प्रतिच्छंद (?) बेचने के नाम यहाँ दिये हैं। जिस मार्गसे कौए अधिक वाले इन दोनोंको "मध्यम" दंड करना चाहिये। जाते हैं उस ओरका देश शत्रुके हाथमें जाता है। असत्यभाषी, कपटी, भूठी साक्षी देने वालेको श्र० २३३ में ग्रहों से जयपगजय अथवा यात्रा दुगना दंड करना चाहिये। अभक्ष्य भक्षण करने | की योजना करना निरूपित किया है। वाले शूद्र अथवा ब्राह्मणको कृष्णल दण्ड करना अ० २३४ में पाइगुगन-- साम, भेद, दाम दंड चाहिये। कम भाप करनेवालोको और थोड़ा इसका पहले उल्लेख किया ही जा चुका है। उसमें तौलने वालोंको “उत्तम” शिक्षा देनी चाहिये । स्वदेश दंडका कुछ वर्णन दिया है । दंडके 'प्रकाश' विष देने वाली, अग्नि, पति, गुरु विन अपत्य और 'अग्रकाश' दो भाग हैं। उसमें से लूट-पाट, का नाश करने वाली अथवा उनको फंसानेवाली | गांवकी नुकसानी, अनाजका हरण, अग्नि इत्यादि स्त्री के नाक, कान, हाथ होठ तोड़ कर गायके | प्रकार पहिली तरह के हैं और विषप्रयोग, प्राग, साथ निकाल देना चाहिये। खेत, घर, गाँव. वन गुण्डोसे पिटवाना, अच्छा पानी बिगाड़ना, ये इत्यादिका नाश करने वालों अथवा राजस्त्रियोंसे दूसरे प्रकार के हैं । युद्ध में शामिल होनेके पूर्व युद्ध गमन करने वालोको काष्टाम्निसे जलाना चाहिये । | से क्या हानि होगी इसका ग़जाको पूर्ण विचार राजाज्ञामें कम अधिक करनेवालेको और पारदारिक करना चाहिये। नुकसान अथवा अनर्थ होना को "उत्तम दण्ड देना चाहिये । राजाके आसन पर संभव हो तो शत्रुसे संधि करनी चाहिये। जहाँ अथवा राजाके रथम बैठने वाला 'उत्तम दंडका. तक सम्भव हो अधिक अर्थ व्यय वाले दान ऐसे पात्र है। न्यायसे जीतने पर भी अपने का जो समय न करना चाहिये। अजित कहता है वह 'उत्तम' दण्डके योग्य है। शत्रुसे कपट निम्मलिखित प्रकारसे करना राजाको द्वंद्वयुद्धका अाब्हान करने वालेको बध चाहिए:-शत्रुके शिविर में एक मोटे पक्षीके पूछमें की शिक्षा देनी चाहिये। अपराधी यदि दंड करने | जलती लकड़ी बांधकर छोड़ना चाहिये, इसे शत्रु वालेके हाथोंसे निकल भागे तो दंड देनेवाला | उल्कापात समझता है, और उसमें शंका और भय दंडका पात्र है। इसकेागेके प्रकरणों में कुछ दंडोका का सञ्चार होगा। उल्कापात बड़ा अशुभ माना और भी वर्णन है। जाता था। इस प्रकार अनेक उत्पात शत्रुओंको ।