पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/६३

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अग्निपुराण ज्ञानकोष (अ) ५३ अग्निपुराण दिखाने चाहिये। तपस्वियों द्वारा अथवा ज्योति- तो राजा को वहाँ नहीं ठहरना चाहिये। सेना षियों द्वारा शत्रुका क्षय होगा ऐसी बाते शत्रुमै अधिक हो चाहे थोड़ी, ब्यूह भेदकी योजना समझ फैलाना चाहिये । शत्रुकी मृत्युके लिये अनेक करही करनी चाहिये । ब्यूह सबको मिलकर एक उपाय करना चाहिये। पंद्रजालिक प्रयोग दिखाने साथही तोड़ना चाहिये। शत्रुका व्यूह प्रथम चाहिये। शत्रु सेना पर रक्त वृष्टि करनी चाहिये। शिथिल करे फिर मौका पाकर उसे तोड़ना ईश्वरकी कृपा अपने पर विशेष हुई है ऐसा चाहिये । व्यूह तोड़नेवाले का रक्षण बड़ी साव- भासित करना चाहिये। राजप्रसाद अथवा ऊँचे धानीसे करना चाहिये । हाथीके पादरक्षणार्थ शिखरों पर शत्रुओके सिर लटकाने चाहिये। चार योद्धा होने चाहिये, रथके रक्षणार्थ चार छुः गुण इस प्रकार हैं-सन्धि, विग्रह, यान, ढाल तलवार सहित धुड़सवार होने चाहिये । 'श्रासन, द्वैधीभाव और संशय । धनुर्धारियोंके साथ उतने ही ढाल वाले तथा राजाकी दिनचर्या-अ० २३५ । दो मुहूर्त शेष उनके पीछे अश्व होने चाहिये। अश्वके पीछे रथ, रहने पर राजाको सो कर उठना चाहिये। पहले हाथी, पैदल, अनुक्रमसे एकके पीछे एक होने गुप्तचर को बुलाना चाहिये । श्रायव्यय श्रवण चाहिये। नाकों पर सर्वदा शूर होने चाहिये। करना चाहिये। मल-मूत्रका उत्सर्ग, स्नान-सन्ध्या, शूर लोगोंके सिर्फ कंधेही दिखलाई देने चाहिय । देवपूजन कर सुवर्ण, धेनु इत्यादि दानधर्म आगे वाले अर्ध-श्लोकका अर्थ स्पष्ट है । (शूरा- करना चाहिये। तत्पश्चात् अनुलेपन करना चाहिये | प्रमुखतो दत्वा स्कंधमात्र प्रदर्शनम् , कर्तव्यभीरु शीशेमें मुख देखना चाहिये, गुरूसे भेटकर ' संधेन शत्रु विद्रावकारकम् ।) उसका आशिर्वाद लेना चाहिये । अलंकार वस्त्रादि शूरोंके लक्षण---लम्बा शरीर, शुकके समान परिधान कर सभामें प्रवेश करना चाहिये । सम्पूर्ण नाक, प्रेम दृष्टि, (अजिम्हेक्षण ) संहृतभू, संतापी, कामका व्यौरा सुनकर उसका निर्णय करना कलहप्रिय, नित्य सन्तुष्ट, आदि शूरोके लक्षण हैं। चाहिये तब सभा समाप्त करनी चाहिये । व्यायाम मृतकोंके शव युद्धभूमिसे दूर करना पैदलों का करना चाहिये । शास्त्रों का अवलोकन करना काम है। उसी प्रकार रसद, पानी, श्रायुध इत्यादि योद्धाओंके पास पहुँचाना भी इन्हीं का काम है। रणदीक्षा--पा० २३६। रणदीक्षा मिलने पर हाथी का काम टक्कर लड़ने का है । शत्रुसे राजाको सेना सहित निकलकर एक कोसपर ठहर । स्वसेना का रक्षण करना, एकत्रित सेना को कर ब्राह्मणादिकों की पूजा करनी चाहिये । परदेश तितर बितर करना, बहादुरों का कर्तव्य है। शत्रु जाने पर उस देशके प्राचारानुसार राजाको को भागनेके लिये बाध्य करना धनुर्धारियों का बर्ताव करना चाहिये। वहाँ के लोगों का अपमान काम है। संघटित सेना को छिन्न-भिन्न करना, न करना चाहिये। सेना की रचना सूची मुखके तथा सेना का एकत्रित करना, रथियों का काम समान होनी चाहिये । सेना थोड़ी रहने पर भी है। तटादिको को भेद करना हाथियों का कर्तव्य शत्रुको अधिक का ही भास करावे । सेनाकी रचना है। विषम (पहाड़ी अथवा ऊँची नीची जमीन करते समय आगे कम पीछे अधिक सेना रखनी को विषम कहते हैं ) भूमि पैदलोंके लिये उत्तम चाहिये । व्यूह रचना प्राणियोंके अंग और द्रव्यों है परन्तु रथोंके लिये उपयोगी नहीं है। हाथी के के अनुसार करनी चाहिये । व्यूहके सामान्य १० लिये दलदलकी भूमि उत्तम है । ये सब रणभूमिके नाम हैं जैसे-गरुड़, मकर, श्यन, अर्द्धचन्द्र, लक्षण देखकर राजा को सेना की व्यवस्था करनी वज्र, शकट, मंडल, सर्वतो भद्रचक्र और सूची। चाहिये। सब व्यूहोंमें सेना पांच जगह विभक्त होती है। योद्धाओको सर्वदा उनके नाम तथा कुलकी पाँचों भागोंमें चुने हुए योद्धा एक दो अवश्य प्रशंसा करके उत्तेजित करना चाहिये। धर्म- रखने चाहिये और शेष उनके संरक्षणार्थ रखने निष्ट राजाकी सर्वदा जय होतो है। युद्ध बरा- चाहिये। राजाको स्वयं युद्ध न करना चाहिये। बरीका होना चाहिये। उदाहरणाथ हाथीसे सेनासे एक कोस दूर रहना चाहिये “मूलच्छेदे हाथी, पैदलसे पैदल, रथसे रथ इत्यादि। प्रेक्षक विनाशः स्यान्न युद्धेश्च स्वयंनृपः । सैन्यस्यपश्चात्ति निःशस्त्र, अथवा पतित लोगोंको रणभूमिमै प्रवेश टेत्तु कोशमात्रे महिपति. ॥” योद्धाओं को श्राश्चा नहीं करना चाहिये। शत्रु शांत, निद्राभिव्याप्त, सन देते रहना बड़ा आवश्यक है । नदी अथवा बनमें फँसा हो तो कपट युद्ध करना यदि सेना का मुख्य भाग कमजोर हो जाय चाहिये। "शत्रु मारे गये, उनका नाश हुआ" चाहिये। - !