पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/६६

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1 अग्निपुराण ज्ञानकोष (अ)५६ अग्निपुराण निर्भर रहता है। इसलिये कोषसर्वदाराजाके समीप ! ब्यूहके सर्पाकार भागमें युद्ध तत्परता (तिर्य- रहना चाहिये। कोष योद्धाओंके काममें लाया | ग्वृत्तिस्तुदण्डस्यात् )। भाग-व्यूहके सरलाकार जाता है। जैसे कोष ही से योद्धाको शत्रके नाशके | भाग में युद्धतत्परता भोगोन्यावृत्तिरेवच ) बदले इनाम देना चाहिये। युद्ध में योद्धाके हाथ भोग और दण्डकी रचनामें भेद है। वह इस से यदि राजा मारा जाय तो उसे १००००० द्रव्य प्रकार है-प्रदर, दृढ़क, असह्य, चाप, कुक्षि, मिलना चाहिये । यदि राजाका पुत्र मारा जाय प्रतिष्ठ, सुप्रतिष्ठ, श्येन, विजय. संजय, विशाल, तो ५०००० द्रव्य देना चाहिये। (द्रव्य यह शब्द सूची, स्थूणाकर्ण, चमूमुख, सास्य और बलय। सामान्यवाची देख पड़ता है)। सेनापती, गज भोगके भेद-~अतिकान्त, प्रतिक्रान्त, विपर्यय,, योद्धा इत्यादि प्रमुख-वीरोंके मारनेवालेको ५०००० स्थूणपक्ष, धनुष्पक्ष, द्विस्थूण, दण्ड, ऊर्ध्वग, द्रव्य अथवा उसका परिश्रम देखकर देना चाहिये। द्विगुण, द्विचतुर्दण्ड, गोमूत्रिका, अहिसञ्चारी, व्यायामविनिवर्तनसे ( पूर्ण रीतिसे कोलाहल | शकट और मकर । करते हुए) किन्तु सेनाकी अड़चन और सुविधा माडलके भेदः-दण्डपक्ष (शकट) व्यतिकीर्ण का ध्यान करके युद्ध करना चाहिये । इसमें संकर सहतके भेद-पानीक, उध्वांग, वज्रभेद। और संकुल शब्द भिन्न भिन्न श्रर्थक हैं। पहलेका मण्डलके दो प्रकार हैं। असंहतके छ: अर्थ भीड और दूसरेका अर्थ एकदम भीड़ करनाप्रकार हैं और भोगके पाँच प्रकार है। दण्डक है। महासंकुल युद्धमें हाथीकी योजना करनी ब्यूहके कक्ष, पक्ष, उरः अंग है। चाहिये। एक घुड़सवारकी बराबरीके लिये तोन व्यूहसम्बन्धी इन श्लोकोंका अर्थ दुर्योध पैदल चाहिये । एक हाथीकी बराबरीके लिये १५ | होनेके कारण श्लोक ही उद्धृत कर दिए हैं। पैदल और तीन घुड़सवार होने चाहिये। यही स्थात् कक्षपक्षो रस्यैश्च वर्तमानस्तु दण्डकः । विधान रथका भी है। तत्र प्रयोगो दण्डस्य स्थानं तुर्यण दर्शयेत् । व्यूहके मुख्य अङ्ग सात है:-उर. कक्ष, पक्ष, स्याद्दण्ड सम पक्षाभ्यामतिकान्तः प्रदारकः। भवे. मध्य, पृष्ट प्रतिग्रह तथा कोटी । वृहस्पतिके मता- सपक्ष कक्षाभ्यांमतिकान्ती दृढ़ः स्मृतः। कक्षाया नुसार व्यूहके अङ्ग उर, दक्ष, कक्ष, और प्रतिग्रह च प्रतिक्रान्त ब्यूहोऽसह्यः स्मृतो यथा । कक्षपक्षा हैं, और शुक्राचार्यका मत है कि इसमें कक्ष न वधः स्थाप्योगस्यः कान्तश्च खातकः॥ होना चाहिये । ( स्मृति समुच्चयमें दिये हुए द्वौ दण्डौ वलयः प्रोक्तो व्यूहो रिपुविदारणः । औशनस् और बृहस्पति-स्मृतिमें यह विषय नहीं दुर्जयश्चतुर्नलयः शत्रोलविमर्दनः ॥. कक्षपक्षोरस्पै है ) । अापसमें वैमनस्यका ध्यान करते हुए युद्ध भाँगो विषयं परिवर्जयेत् । सपचारीगोमूत्रिका करना चाहिये और एक दूसरेका रक्षण करना शकटः शकटाकृतिः । विपर्ययोऽमरः प्रोक्तः सर्व चाहिये । व्यूहके बीच में सेनाथोड़ी होनी चाहिये। । शत्रु विमर्दकः । स्यात् कक्षपक्षारस्याना मेकी उरकी जगह प्रचंड हाथीकी योजना करनी चाहिये। भावस्तु मण्डलः। चक्रपद्मादयोभेदा मण्डलस्य कक्षाके स्थानपर रथ, पक्षपर हाथीकी सेना- प्रभेदकाः । एवं च सर्वतोभद्रो वज्राक्ष वर- इस प्रकारकी ब्यूह-रचना को "अंतर्भेद' व्यूह- | काकवत्। अर्धचन्द्रश्च शृंगाटो ह्यचलो नाम रचना कहते हैं। रूपतः । ट्यूहा यथा सुखं कार्याः शत्रूणां बल रथोकी जगह घुड़सवार अथवा धुड़सवारों वारणाः । को जगह पैदल या रथोकी जगह हाथियोको युद्ध सम्बन्धी शास्त्रका जो भाग यहाँ उधृत लड़ाना चाहिये । व्यूहके सात अङ्ग पहले ही लिखे | किया गया है उससे उस कालकी युद्धपद्धतिके जा चुके हैं। शानके साथ ही साथ यह भी ज्ञात हो जायगा व्यूह रचना से तात्पर्य है सशस्त्र सेना की कि उस कालकी अपेक्षा हमाग युद्ध-शास्त्र-सम्बंधी नियमपूर्वक रचना करना। ब्यूह के सात अंगों ज्ञान कितना परिमित है। में सेना किस प्रकार खड़ी करनी चाहिये उसी स्त्री-पुरुष लक्षण-अ० २४३ में पुरुष लक्षण।। योजनाके अनुसार उनके नाम होते हैं। उनमें से | ये लक्षण पढ़ने योग्य है। अ०२४१-२४५ में मुख्य ये हैं:-मण्डल, अंसहत, भोग और दंड। स्त्री लक्षण दिये हैं। मंडल संपूर्ण ब्यूहमें तत्परता। ( मण्डलः सर्वतो चवर और शस्त्रास्त्र--चँवरके लक्षण---चँवरकी वृत्तिः) असंहत-व्यूहके पृथक पृथक् भागमे मुठिया सोनेकी होनी चाहिये । मोर, हंस, शुक, युद्ध तत्परता। (पृथक वृत्तिर संहत;) दण्ड- ! बगुला इत्यादि पतियोंके पंख चँवर के लिये उप- 1