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पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/६८

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अग्निपुराण शानकोश ( अ) ५८ अग्निपुराण मिलाकर नीचे की ओर दृष्टि स्थिर रखनी चाहिये। | चाहिये। बायें हाथसे वाण छोड़नेको 'उच्छेद' वैशास्त्र स्थान-सीधे और तने हुये घुटनों पर हाथ | कहते हैं। केवल निशाने पर ही ध्यान रखना की अँगुलियोको रखना चाहिये। मंडल स्थान-- मध्यम' गिना जाता है। उत्तम तो वह है कि लक्ष हंसकी पंक्तियोंके समान करके उसमें एक वित्तका | के साथ ही साथ हाथ और बाण पर भी पूर्ण अन्तर रखना चाहिये। अालीढ-हलके श्राकार ध्यान रहे। इसी भाँति उत्तम धनुष ४, मध्यम के समान घुटने और जाँघ रहना चाहिये। इसमें | ३॥ और निकृष्ट ३ हाथका होता है। मुख्यतः तो ५अंगुलका अन्तर होना चाहिये। विपर्यस्त--- | उपरोक्त वर्णन केवल पैदलों ही के लिये है, किन्तु उपरोक्त लक्षणोके विपरीत क्रिया। जातस्थान- यही सब नियम और व्यवस्था धुड़सवार, रथ बाँयें घुटनेको टेढ़ा करके दाहिनेको सीधे तना और हाथीके लिये भी हो सकती है। श्रा: २५० में इशा रखना। इसमें ५ व १२ अंगुलका अन्तर भी धनुर्वद ही का वर्णन है। धनुर्विद्या सीखते होना चाहिये। दण्डायत-दाहिने घुटनेको टेढ़ा | समय पहले यज्ञ भूमि पर धनुष सुनिर्धात' रखना करके बायको सीधा रखना। विकटस्थान भी चाहिये, मांसफा हवन करना चाहिए । धनुष, इसी भाँति समझना चाहिये। केवल अन्तर दो गदा श्रादि श्रायुधोंकी पूजा करनी चाहिये । हाथका होना चाहिये। सम्पुटस्थान- दोनों पैर निपुण योद्धाको एकचित्त होकर बाण हाथमे लेना ऊँचे करके घुटनोको पूरा पूरा फैलाना । चाहिये । ( तूण ) तरकश पीठमैं बाँधना चाहिये। स्वास्तिक स्थान-दण्डके समान सीधे पैरोंको वह बाँये अथवा दाहिने बगलमें लटकाना चाहिये, रखकर उनको फेरना। इस क्रियामें श्रन्तर २६ चाण खुला रखना चाहिये। तदन्तर तरकसमें से अंगुल होना चाहिये। ये सब क्रियाएँ ज्यादातर | बाण निकालना चाहिये। वह दाहिने हाथ में लेना धनुर्धारियोंके लिए होती हैं। वन्दना करनेके | चाहिये । दाहिने हाथसे वाण बीचसे पकड़ कर पश्चात् धनुष ग्रहण करना चाहिए । धनुषका एक बांये हाथसे कक्षा और धनुष पर चढ़ाना चाहिये । कोना जमीन पर टेक कर प्रत्यञ्चाचढ़ानी चाहिए। धनुपकी प्रत्यंचा चढ़ाने पर बाण पुस्खकी ओरसे 'फलादेश' भूमि पर स्थित करना चाहिये । धनुष धनुष पर चढ़ाना चाहिये। सिंहकणके समान को तौलना चाहिये । कलाइयाँ और हाथ घुमाकर | पुखको तान कर (सिंह कर्ण यह पुखका विशेषण प्रत्यञ्चा पर बाण लगाने चाहिये । धनुषका है कि क्रियार्थ माना जाय, यह शंका है)। बायें विन्यास १२ अंगुल होना चाहिये। श्रागेके श्राधे | कान तक ले जाना चाहिये। बाणोंको यांए हाथके श्लोकमें कहा है कि प्रत्यञ्चाकी शक्तिके अनुसार बीचकी अँगुलीसे पकड़ना चाहिये । ध्यान लक्षकी ही वह खींचनी चाहिये। धनुष को नाभि पर टेक नोर रख मुष्टि और दृष्टी समरेखामें रखनी कर बाण नितम्ब पर रखना चाहिये। हाथ कान चाहिये और प्रत्यञ्चा दाहिने का नकी ओर खींच तक स्त्रींचना चाहिये। चुटको सधी हुई होनी कर वाण छोड़ना चाहिये । दंड प्रहारके समान चाहिये । दक्षिण स्तनकी और बाण होना चाहिये; चन्द्रक (१६ अंगुलका बाण ) माम माग्ना बाण ऊपर नीचे, भीतर बाहर एक समान चाहिये । इसका श्राभ्यास सावकाश करना होना चाहिये। टेढ़ा, चञ्चल, मोटा, पतला होना चाहिये। इस चतुर्वेध अभ्यासके पूर्ण होने पर दोषका लक्षण है। सारथीको त्रिकोणमें बैटना क्रमसे तीक्ष्ण, परावृत, गत. निम्न, उन्नत ऐसे चाहिये। कन्धे झुके होने चाहिये। गर्दन निश्चल ! लक्ष्योंका अभ्यास करना चाहिये । (इस अभ्यास और मस्तक "मयूरांचित' होना चाहिये। (मयू- | क्रमका आज कल गोली चलाने के अभ्याससे बहुत राञ्चित का लक्षण सारङ्गदेवने संगीत रत्नमें दिया कुछ साम्य है)। यह धनुर्वेद के अभ्यासकी पहली है। ) मस्तक, मुख, नाक कन्धे सीधे किन्तु ठही सीढ़ी है। यह अभ्यास बढ़ते बढ़ते दो सीन वेध और कन्धोंमें तीन अंगुलका अन्तर होना चाहिये एकही समय में हो सकते हैं। इसके बाद १३ से यही उत्तम जाना गया है। मध्यम दो और १७ श्लोक तकका श्रार्थ ठीक झात नहीं है । निकृष्ट एक अंगुल कहा गया है। अंगूठा और (श्र० २५१) धनुर्विद्याक श्रभ्यासकको निम्नलिखित उसके पास वाली अँगुलीसे वाण निकालना : बातो पर भी ध्यान रखना चाहिये । श्रभ्यासक चाहिये। बाणको प्रत्यञ्चा पर चढ़ा कर बाणकी, जितहस्त, जितभक्ति, जिनदृष्टि, लम्बाई के प्रमाणमें खींचना चाहिये। उपरोक्त साधक होना चाहिये। इस प्रकार धनुविद्याका सम्पूर्ण विधिको "श्रामुक्त' कहते हैं। दृष्टि और अभ्यास होने पर वाहन पर बैठ कर इन बातोंका चुटकीको साध कर ही लक्ष पर बाण चलाना अभ्यास करना चाहिये। 1 और लक्ष्य