पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/७

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निवेदन ! अतः हिन्दी-संसारके निरन्तर प्रयत्न, श्रादम्य उत्साह, तथा अपूर्व लगनसे भारत ऐसे विशाल देशके कोने कोने में भी हिन्दीका डंका बजने लग गया है; और हिन्दीके ही राष्ट्र-भाषा होनेकी पूर्ण सम्भावना होने लगी है। यह भी हमारे विचार-शील महानुभावोंसे छिपा नहीं है कि उन्नति की दौड़में हिन्दी देशकी सम्पूर्ण भाषानोसे कितनी श्रागे निकल चुकी है। जो जो त्रुटियाँ तथा प्रभाव हिन्दी भाषा या साहित्यमें विदित होते जारहे हैं उनकी पूर्ति के लिए कोई न कोई सच्चा सेवक कार्यक्षेत्रमें आ डटता है। निस्सन्देह हिन्दीका भविष्य नितान्त उज्ज्वल है। डाक्टर श्रीधर व्यङ्कटेश केतकर, एम. ए. पी. एच. डी०, पूना ने अपने सतत परिश्रमसे मराठी तथा गुजरातीमें शानकोश प्रकाशित करके उक्त साहित्यों तथा भाषाओंकी अपूर्व सेवा की है। इधर कई वर्षोंसे उक्त महोदय हिन्दीभाषा तथा साहित्यके इस अक्षम्य अभावको पूर्तिके लिए भी निरन्तर प्रयत्न कर रहे थे, और इस गुरुतर कार्यके लिए उनको एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो अपने आदर्श खार्थत्याग, अपूर्व लगन तथा कठोर परिश्रम के साथ ही साथ जीवनकी सर्वोत्तम शक्तियोंको इसीके लिए समर्पण कर दे। किन्तु, शानकोश ऐसे महान कार्यकी सफलताके लिए व्यक्तिगत परिश्रमका कोई विशेष मूल्य नहीं हो सकता। इसके लिए देशके धुरन्धर विद्वानोंका सहयोग तथा परामर्श, अनुभवी महोदयों को सहायता तथा वयोवृद्धोंके श्राशीर्वाद की पग पग पर श्रावश्यकता होती है; इसके लिए जिल गम्भीरता तथा विविध-विषयक ज्ञानको आवश्यकता है, वह एक दो व्यक्तिमें होना असम्भव डा० श्रीधर व्यङ्कटेश केतकर द्वारा कार्यका भार सौंपे जानेपर अनेक बाधायें तथा कटिनाइयां उपस्थित होने लगों। मुझ जैसे अनुभव-शून्य साधारण व्यक्ति के लिए इस महान कार्यका सुचारु सञ्चालन तथा सम्पादन असम्भव सा देख पड़ने लगा। सतत् परिश्रम भी योग्यता के श्रभावकी पूर्ति न कर सका और ज्ञानकोशके सच्चा शानकोश-यथा नाम तथा गुण होने में सन्देह होने लगा। बात भी वास्तवमें ऐसी ही थी। अतः प्रथम भागके प्रकाशित करने के साथ ही साथ प्रान्त तथा देशके धुरन्धर विद्वानोसे पत्र व्यवहार तथा आवश्यकता होने पर मिलकर उचित परामर्श लेना श्रारम्भ कर दिया। योग्यता न होनेपर भी केवल मेरे साहस तथा उत्साहको देखकर चारों ओरसे मुझे सहायता तथा सहानुभूति प्राप्त होने लगी। शनैः शनैः विषयानुसार उत्तमोत्तम लेख संग्रह करनेके लिए एक वृहद् लेखक-मण्डलको नींव पड़ गई। श्रावश्यकतानुसार अन्य भाषाओके धुरन्धर लेखकोंसे भी उनके विषयके लेख लिखा कर अनुवादका प्रवन्ध किया गया है। इतनेपर भी इसके सुचारु सञ्चालन तथा सम्पादनमें सन्देह बना ही रहा। अतः इस मण्डल में से जो विशेषरूपसे उत्साहित होने के साथ ही साथ अपने अपने विषयके धुरन्धर विद्वान हैं तथा जिनकी मुझपर विशेष कृपा रही है उनके सहयोग से एक सम्पादकीय मण्डलका जन्म हुआ । सम्पादकीय सञ्चालनका सम्पूर्ण भार इसी मण्डल पर निर्धारित कर दिया गया है । आवश्यकतानुसार इस मण्डलका विस्तार भी बढ़ता जावेगा। इन दोनों मण्डलोंके अतिरिक्त भी देश तथा प्रान्तमें कुछ ऐसे अनुभवी महोदय हैं जिनका समयाभावसे पूर्ण सहयोग असम्भव होते हुए भी इस गुरुतर कार्यकी पूर्ण सफलताके लिए सामयिक उपदेश तथा आशीर्वाद नितान्त श्रावश्यक था। ऐसे ही महानुभावोद्वारा संरक्षक-मण्डलकी योजना की गई। यद्यपि जो भाग पाठकोंके सम्मुख है उसमें विशेष रूपसे त्रुटियाँ रह गई हैं, और इसका श्राभास भी मुझे पग पग पर होता रहा है। किन्तु उस समय तक उपरोक्त मण्डलोंका पूर्ण विकास न होने से इस भागका आधार मराठी ज्ञानकोश ही रहा । किन्तु अब इसका दूसरा भाग निम्न लिखित महोदयोंकी सहायता, सहयोग तथा परामर्श से निकल रहा है। सम्पादक मण्डलके जिन महोदयोने जिन विषयौके सम्पादनका भार द्वितीय भागके लिये ले लिया है उनके नामके सम्मुख वे विषय भी दे दिये गये हैं।