पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/७०

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टाक गायत्री जप, अग्निपुराण ज्ञानकोश (अ) ६० अग्निपुराण घुड़सवार और धनुर्धारी रहने चाहिये। धनु- सोमवंश। श्र० २७५ में यदुवंश वर्सन । धारियोंके रक्षणार्थ चर्मधारक रहना चाहिये । २७६ में कृष्णपके द्वादश संग्राम । अब २७७ अ० २५३ में व्यवहारिक विषय हैं। इसके | गजवंश वान । तुर्वशों की कथा है। यह बंश- नियम और विचार-पद्धति धर्मशास्त्र के समान | वर्णन केवल पाण्डवों तकका ही है। विचार करने योग्य हैं । अ० २५४ में ऋण देनेके आयुर्वेद-(अध्याय २७६-३०५ ) इनमें मनुष्य- नियम हैं। अ० २५५ में दिव्यप्रमाण दिया है। वैद्यक, पशु वैद्यक वृक्ष वैद्यक, और बीच बीचमें अ० २५६ में दाय विभाग प्रकरण । अ २५७ में भिन्न भिन्न विषय हैं। श्र०२७६ में सिद्धौषधालय। सीमाविवादादि निर्णय ! अ.२५ में वाक्पारुष्यादि । अ० २८० में सर्वरोगहरण औषधि । मुख्यतः प्रकरण । ( Hindi Lav) अाजकल हिन्दुओंके । व्याधि चार प्रकार की है-शारीरिक, मानसिक लिये जो कानून प्रचलित है वह बहुत अंशमें इसीके श्रागन्तुक (बाहरी ) और सहज । अ० २८१ में आधार पर हैं। विस्तारभयसे इसका वर्णन रसादि लक्षण, सोमज रस, स्वादु, अम्ल, लक्ष नहीं दे रहे हैं। तथा अग्निज-कटु तिक्त और कषाय । अ० २८२ जादू टोनों में वेदोंका उपयोग-श्र. २५६ ऋग्वि- में वृक्षायुर्वेद । अक्षवृक्ष उत्तरमै, वटवृक्ष पूर्वमै धान । यों तो प्रत्येक कार्यके लिये ही, किन्तु | दक्षिण में श्राम, पश्चिममै अश्वत्थ वृक्ष लगाना विशेष कर अभिचार के लिये जिन ऋगवेदके मन्त्रो ! चाहिये। नीबू, अशोक, पुनागड़, शिरीष, प्रियं- का उपयोग हुआ है उन्हें ऋविधान कहते हैं। गव, अशोक, कदली. जामुन, मौलसरी, अनार, मेधाकर्म, सदस्पति तीन चाये हैं। इन वृक्षोंको प्रातःकाल और संध्याके समय पानी आगे मृत्यु-नाशक नौ ऋचाय, यात्रा निर्भय हाने देना चाहिये। के लिये ते पंथा' वाली ऋचा और निरोग होने उखाड़कर फिरसे लगाए हुए वृक्षको वर्षाऋतु के लिये, 'मित्रमाशपुरन्दरम्' की ऋचा है। एक में यदि जमीन सूखी हो तो उसे गत्रिमें भी पानी मन्त्र ऐसा है जिसके पढ़नेसे जाति-श्रेष्ठत्व प्राप्त | देना चाहिये। उत्तम २० हाथ, मध्यम १६ हाथ होता है। इन्हीं सबका वर्णन ऋविधानमें है। और कनिष्ट १२ हाथ-यह वृक्ष लगानेका प्रमाण इस भाँति अन्य तीन वेदोंके भी विधान हैं। है। यदि वृक्षको फल न श्रावे नो शस्त्रसे उसकी अ० २६० मै यजुर्विधान । इसके पूर्वके | कलम करनी चाहिये । वृक्षको फल श्राता हो परन्तु अध्यायमै फल-प्राप्तिके लिय जो हवन किये जाते | वह परिपक्क नहीं होना हो तो उसमें बायविरंग हैं उनमें किन भिन्न भिन्न हविर्द्रव्योंका प्रयोग और घी, खादमें मिलाकर डालना चाहिये। करना चाहिये उसका वर्णन दिया है। शत्रु तथा हुलगे, उड़द, मूंग, तिल, सत्त और धीका विद्वेषके हवनके लिये काक और उल्लूके पंखोंको चूर्ण कर ठंडे पानीमें मिलाकर वृक्ष को देना काममें लाना चाहिये। ऋविधानमै तो केवल चाहिये। इस क्रियासे वृक्षोर्मे फूल और फल ऐन्द्रजालिक माया का ही उल्लेख भाया है किन्तु उत्तम आते हैं। यजुर्वेदमे तो उच्चाटन विधिका भी प्रयोग श्राया वृक्षोमै पुष्प फलादिकों की वृद्धि होने के लिये है। अ० २६१ में सामविधान। इसमें अंजन, ! वृत्तको बकरीकी विष्ठा, सत्त, तिल, गोमांस, मोहन इत्यादिका भी वर्णन पाया है। अ० २६२ | और पानी सात रात्रि देना चाहिये। वृक्षोंकी में अथर्वविधान और श्र. २६३ में उत्पात शान्ति वृद्धि मछलियोंके पानीसे होती है। वृक्षोंकी का उल्लेख है। कीड़ी नाश करनेके लिये वायबिरंग, चावल, उपासना विषय--अ० २६४ में देवपूजा, वैश्वदेव | मछलियों का मांस पानीमें मिलाकर वृक्ष का देना बलि-वर्णन । श्र० २६५ में दिग्पालादि स्नान । चाहिये। श्र० २६६ में विनायक स्नान, स्वप्नमें अनेक अप श्र० २८३ में अनेक गोका नाश करनेवाली शकुन होनेपर उसके परिहारार्थ स्नान । औषधियाँ हैं। अ०२८४ में मंत्ररूपी श्रौषधियाँ। २६७ में माहेश्वर स्नान, लक्ष कोटादिकोका वर्णन। श्र० २८५ मै मृतसंजीवन सिद्धियोग । अ० २६८ में निरांजना विधि । श्र० २६६ में अ० २८६ में मृत्युञ्जय यांग औषधियाँ, श्र० छत्रादि प्रार्थना। अ० २७० में विष्णुपंजर । २८७ मैं गज चिकित्सा। लम्बी सूड और बड़े राजकीय तथा साहित्यक इतिहास-अ० २७१ में उच्छासवाले हाथी "प्रशस्त” कहलाते हैं। हाथी वेद शाखादि कथन । अ० २७२ में पुराण दानादि को २० श्रथवा १८ नख होने चाहिये। उनको माहात्म। अ० २७३ में सूर्यवंश । अ० २७४ में | जाड़ेमें मद श्राना चाहिए। दाहिना दाँत ऊँचा, श्रा०