पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/७२

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। 1 अग्निमान्दा ज्ञानकोश (अ) ६२ अभिमान्य मत ग्रंथित हैं । उदाहरणार्थ:-पंचशिख कहता है ! दाँतोकी खराबी या बिना भलीभांति चचाये भोजन कि सवत्र समदर्शी, निर्ममत्व, असंगता, इत्यादि । को निगल जाने से यह रोग होने लगता है। खाद्य कल्याणके मुख्य साधन हैं। गंगाविष्णुका मत है | पदार्थों की गरिष्ठता अथवा हलकेपनपर भी बहुत कि गर्भले मरण तक क्यकी अवस्था जानकर कुछ निर्भर रहता है । घी अथवा तेल में पकाया उसी प्रकार चलना ही कल्याणका साधन है । इस हुआ भोजन; बहुत अधिक मसालोंसे वधारी तरह भिन्न भिन्न कई मत हैं। हुई वस्तु हानिकारक होती है। इसी भाँति सभी अ० ३८३ मै अग्निपुराण महात्म्य वर्णित है। पेय पदार्थ सभी मनुष्योंके लिये लाभकारी नहीं अग्निमांद्य ( मन्दाग्नि)-इसका वैद्यक होते। चाय भी पाचनशक्तिको क्षीण करता है शास्त्रमें कोई स्वतन्त्र स्थान नहीं है, तो भी इसके | और किसी किसीको तो यह बिल्कुल नहीं पचता। होनेसे आमाशय इत्यादि अन्न-मार्गों में किसी भोजनके समय बहुत जल सेवन नहीं करना रोग होनेकी सम्भावनामात्र की जा सकती है। चाहिये । जठराग्निमें भोजनके साथ अधिक जल बहुधा पक्वाशय, भामाशय. जठर और अंतड़ियों पहुँच जानेसे अन्न-पाचक द्रव्य ( लार कम पैदा में कोई रोग न होते हुए भी मन्दाग्निकी शिकायत होता है और अन्न पचनेमें विलम्ब होता है। दाँत हो जाया करती है। आजकल नगरोंकी कृत्रिम में कीड़े अथवा उनसे मवाद या खुन आनेसे तथा अस्वाभाविक जीवनचर्यासे यह रोग बहुत ! ([vrrhoea) अथवा मुखकी श्रशुद्धतासे भी भोजन फैलता जा रहा है। अतः यहाँ पर इसका स्वतन्त्र ठीक-ठीक नहीं पचता। रीतिसे विचार कर रहे हैं। (२) मानसिक प्रभाव-इन सब बाहा कारणों प्रारम्भमें इस रोगका कोई विशेष महत्व नहीं | के अतिरिक्त बहुधा मानसिक कारण भी होते समझा जाता है, किन्तु धीरे धीरे लापरवाहीसे हैं। मनुष्यकी मानसिक स्थितिका भी प्रभाव कम यही बढ़ कर किसी प्रचण्ड रोगका रूप धारण नहीं पड़ता। भोजनके समय कोई अनिष्ट अथवा कर लेता है । प्रारम्भमें इससे कोई विशेष कष्ट नहीं अशुभ बात हो जानेसे उस समय खाया हुआ होता, केवल बारबार अपचन ही होता हुआ | श्रन्न नहीं पचता। चित्तमें भोजन के पदार्थ से मालूम पड़ता है । आमाशय इत्यादिके रोगोंके घृणा हो जानेसे तो कभी-कभी कै तक हो जाती लक्षण प्रारम्भमें केवल भन्दाग्निके अतिरिक्त और है । चिन्ता, भय, व्याकुलता, और खिन्नता आदि तो कुछ प्रत्यक्ष देख पड़ते नहीं, किन्तु वही जय | मानसिक अवस्थामें भी भोजन न करना चाहिये। सांघातिक होने लगते हैं तब कठिनता था पड़ती इन मानसिक स्थितियों का प्रभाव पाचनशक्ति पर है । बहुधा, श्रारम्भमें केवल मंदाग्नि होते हुए भी । भी बहुत पड़ता है। इसकी ठीक-ठीक चिकित्सा न करने और ध्यान उदर, छाती, पेट इत्यादिकी नलियोको साफ न देनेसे परिणाम भयंकर हो जाता है । इसके न रखनेसे श्रामाशय इत्यादि शिथिल पड़ जाते हैं कुछ स्वतन्त्र कारण नीचे दिये जाते हैं। और अपनी क्रिया ठीक-ठीक नहीं करते । फल (१) दूषित अन्नके व्यवहारसे होनेवाला अपच:- यह होता है कि पेट भारी रहने लगता है. मल- सड़ा हुश्रा अथवा बहुत गरिष्ठ भोजन करनेसेअपच त्याग स्वच्छ नहीं होता और अपच रहने लगता हो जाता है। भोज्य पदार्थ ठीक होते हुए भी है । बहुधा, बाल्यावस्थामें श्रामाशय इत्यादिके बहुत अधिक खा जाना,बारबार खाते रहना,अथवा । बरावर रोग होते रहनेसे, यादमें भी हृदय दौवयं, बहुत अधिक उपवास और लंघन करना----इन कब्ज, बहुमूत्र इत्यादि रोग श्रा घेरते हैं। परिणाम सबसे भी पाचन-शक्ति क्षीण हो जाती है । सव यह होता है कि पाचनशक्तिका बिलकुल हास हो मनुप्योंके लिये एकही भोजन अथवा भोजन-प्रमाण जाता है । कभी कभी पेटमै शूल भी होने लगता है। नहीं हो सकता । यह तो प्रत्येक मनुष्यकी प्रकृति । यदि सब नैसर्गिक नियमो, औषधिउपचार तथा पार शक्ति पर निर्भर है। बल्कि एक ही मनुष्य | पथ्यका पालन करने पर भी पाचनशक्ति ठीक न हो को भिन्न भिन्न परिस्थितियोमे अपना भोजन और तो बहुमूत्र, मूत्रपिंडके गेग अथवा संधिवात और उसका प्रमाण बदलना आवश्यक है। ग्रीष्म ऋतु कफका दोष होना अनिवार्य है। बहुत काल तक की अपेक्षा जाड़े में मनुष्य अधिक भोजन करता अपच रहते रहते क्षय इत्यादि भयंकर रोग तक है। बाजारों में सर्वदा बैठे हुए व्यापार करनेवालोंके हो सकता है। अथवा ऐसा भी हो सकता है कि क्षय मुकाबिलेमें शुद्ध वायु और सूर्यके प्रकाश में परि- | इत्यादि भयंकर रोग हो जानेसे मन्दाग्निकी शिकायत श्रम करनेवालोंकी पाचनक्रिया अच्छी होगी। धीरे धीरे रहने लगती है। अतः यह स्पष्ट है कि -