पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/७४

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शुद्ध वायु सेवन अग्निमान्ध ज्ञानकोश (अ) ६४ अग्निमान्ध पहनना चाहिये। पेटमें ऊनी पट्टी लपेटे रहना | Silicate) विस्मथसिलिसिकेट, वेटान पॅथोल चाहिये। घी और तेलमें पकाया अथवा तला ( Pathol ) आदि उत्तम औषधियाँ हैं। हुआ भोजन न करना चाहिये। अधिक चटपटा इन औषधियों में से अथवा किसी देशी दवाईका अथवा मसालेदार भोजन भी हानिकारक है। प्रयोग अपनी प्रकृतिके अनुसार किसी होशियार उबाला हुआ सादा भोजन करना चाहिये, फलोका | चिकित्सकको दिखाकर ही करना चाहिये। व्यवहार लाभदायक है। यदि यह भी न पचे तो वैद्यक शास्त्रमें इसपर पूर्ण विचार किया गया केवल दूधका सेवन करना चाहिये, किन्तु है। कुछ आवश्यक बातें नीचे उदृत की जाती इसका भी अधिक सेवन हानिकारक हो सकता | हैं। मन्दाग्निका अर्थ अजीर्ण है और अजीर्णसे है। स्फूर्ति और उत्साहके लिये कुछ मनुष्य तात्पर्य है किया हुआ भोजन अथवा जलका न सुरापान करने लगते हैं, किन्तु इसका परिणाम | पचना। अन्नका रसादि धातुमें योग्य रीतिसे बहुत बुरा होता है। अतः यह कभी सेवन न | रूपान्तर न होकर विकृत अन्न-रस बननेसे यह करना चाहिये। भोजन स्वस्थ होकर करना ! रोग उत्पन्न होता है। (अन्नके न पचनेसे जो रोग चाहिये और भोजनके उपरान्त तत्काल ही कठिन | उत्पन्न होते हैं उनके विस्तृत वर्णनके लिये परिश्रम न करना चाहिये। यदि हो सके तो श्रांग हृदय अ०८ प्रकरण देखिये।) थोड़ा श्राराम करना चाहिये। अजीर्ण प्रायः तीन प्रकारके कहे गये हैं.--(१) करना चाहिये। प्रातःकाल उठकर ठण्डे जलसे | वातजन्य (२) पित्तजन्य और (३) श्लैष्मिक। स्नान करना भी लाभदायक है। इन्हीं विकागेसे विसूचिका, आमदोष, अलसक औपधिउपचार---एक तो यह वैद्यक शास्त्रका | इत्यादि रोग उत्पन्न होते हैं। कञ्ज रहना या बड़ा गहन विषय है, दूसरे व्यक्तित्वका ध्यान भी दस्त होजाना,भोजनसे ग्लानि होना, वायु दूर न इसमें अनिवार्य है। अतः इसपर पूर्ण रूपसे यहाँ होना, पेट पर अफार होना, चक्कर आना इत्यादि लिखना तो बड़ा कठिन है, परन्तु सर्वसाधा- अजीर्णके लक्षण हैं। पित्तके दोषसे जो अजीर्ण रणके लाभके लिये कुछ उपयुक्त औषधियोंके . होता है उले विदग्धाजीर्ण भी कहते हैं। इसमें गुण तथा सेवनविधि लिखे जाते हैं। छातीमें दाह हुआ करती है, प्यास अधिक लगती बाई कार्वनेट आफ सोडा (Bi-Carbonate: है, खट्टी व कड़वी डकारें श्रानी हैं। इसोसे 'प्रान- of Soda) श्रपञ्चके लिये बड़ी गुणकारी औषधि पित्त' नामक रोग हो जाता है। कफके अजीर्णमें है। भोजनके पहले इसका सेवन करनेसे भोजन आँखें तथा गाल सूज आते हैं, बिना भोजन किये के दो तीन घण्टे पश्चात् जो खट्टी डकारें आती हैं हुए भी डकारें आती रहती हैं। मुंहमें पानी तथा आन्नपित्त हातो है उनका नाश होता है । भरता रहता है, जी मिचलाता है चक्कर आते रहते विस्मथ ( kismuth) के प्रयोगसे दाहका नाश है और शरीर जड़ता मालूम होती रहती है। होता है। यह वुकनी ( Powder ) अथवा पेय : इनके अतिरिक्त एक प्रकारका और अजीर्ण ( Liquid ) रूपमै दी जा सकती है। आमाशय है जिसे रसाजीर्ण कह सकते हैं। इसमें किये की क्रिया ठीक करने के लिये और भोजन पचाने । हुए भोजनका ठीक प्रकार से धातु श्रादि रसोंमें के लिये थोड़े प्रमाणमें कुचलाका सत ( Lolide) रूपान्तर नहीं होता । अतः भोजनमें रुचि नहीं भी लाभदायक है । हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड(IHydro- | होती, शरीर निर्बल होता जाता है और मनुष्य chloric acid ) और पेपसीन ( IPepsine) उत्साहहीन होने लगता है। किसी भी प्रकारका पाचनके लिये उपयोगी है। किन्तु यदि जी भी अजीर्ण बहुत बढ़ जाने पर मूर्छा, निद्राम प्रलाप, मिचलाता हो और वमन हानेको शंका हो तो वमन, चक्कर आदि भयंकर गंग उत्पन्न हो जाते इङ्गलह्वीनका प्रयोग लाभकारी होता है। यदि । है। इसीसे अलसक, विसूचिका तथा विलम्बिका पिष्टान्न भी न पचता हो तो डायस्टीस | श्रादि मनुष्य पर आक्रमण कर बैठता है और ( Diastage ) माल्ट ( Malt) अथवा पका पपीता मृत्यु तक हो जाती है । यदि दुर्बल पाचन-शक्ति सेवन करना चाहिये। आमाशय या अंतडीमें बाला वारंवार बहुन भोजन करता है तो वातादि अन्न सड़ने न देनेके लिये सल्फेट आफ साडा दोष कुपित होकर पेट में सड़े हुए अन्नसे मिलकर (Sulph Carb Soda) देना चाहिये। यदि पेटमै विसूचिका पैदाकर देते हैं, जिससे दस्त थाने लगते सड़ा हुश्रा अन्न हो तो वातासरणके लिये तथा हैं। विसूचिकाके लक्षण कालग ( Cholera) तन्तुनाशके लिये ( Germicile) ( Bismuth समान होते हैं। यदि यही सड़ा हुआ अन्न - -