पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/७७

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अग्निष्टोम ज्ञानकोष (अ) ६७ अग्यारी सोमक्रय---इसमें सोम वल्ली किस प्रकार ( लाई ) (४) पुरोडाश (५) पयस्या (छैना) लानी चाहिये इसका वर्णन है। दुधिग्रह पूचार-तत्पश्चात् दहीका हवन अतिथ्येष्टि-इसके प्रधान देवता विष्णु हैं। होता है। उपसदिष्टि—इसमें अग्नि, सोम और विष्णु अंशुपचार - इसमें सोमरसका हवन होता है प्रधान देवता होते हैं। प्रातःकाल, मध्याह्न तथा और ऋत्विज सामगान करते हैं । सायंकाल तीन दिन तक घृतका होम होता है । सबनीय पशु-जब पशुकी बलि दी जा चुकती प्रर्बग्योद्वासन-सस्त्रीक यजमान, अध्वर्यु है तो उसके अङ्गोको पकाया जाता है और उसी तथा अन्यान्य ऋत्विज उत्तर वेदी की ओर जाते की आहूति दी जाती है और सोमरस चढ़ाया हैं। मार्गमें स्थान पर जहाँ ये रुकते हैं वहाँ जाता है। प्रस्तोता सामगायन करता है। शुक्रामथिंकपचार-इसमें सोम रसका हवन अग्निप्रणयन-इसमें सवनीय हविसम्बन्धि होता है । बचे हुए सोमरसको पान करते हैं शाखाहरण की क्रिया की जोती है सवन प्रायश्चित होता है और ऋत्विजोंके चले हविर्धान मंडप-इस नामके मण्डपकी योजना | जाने पर यह क्रिया समाप्त की जाती है की जाती है । एक एक बित्ते चौड़े चार गड्ढे तयार मान्ध्यदिनसवन-प्रातः सवनीयके ही समान किए जाते हैं। इन्हीं की मट्टीसे चबूतरा बनाकर यह भी होता है, केवल थोड़ा भेद है। उस पर सोमरसके पात्र स्थापित किये जाते हैं। विभुढढोम--इसमें विभुट नामका होम होता है। गड्डोंमें सोमलता कूटनेका प्रबन्ध रहता है । सवनीय पुरोडाश याग किया जाता है दाक्षिणात्य अग्निधीय मण्डप–इसमें दो मण्डप बनाये | का होम भी इसकी मुख्य क्रिया है। तदनन्तर जाते हैं:-(१) मार्जालीय मण्डप दक्षिण ओर दक्षिणा दी जाती है, प्रधानको सुवर्ण दिया जाता बनाया जाता है, (२) सदनायक मण्डप पश्चिम है। ऋत्विजोंके चार वर्ग रहते हैं। प्रथमवर्गको १२ में होता है। द्वार केवल पूर्व और पश्चिमकी ओर गौ, द्वितीयको ६, तृतीयको ४ और चतुर्थको ३ दी जातो हैं । तदनन्तर वैश्वकर्मण होता है। अग्नियोमपणयन-यजमान और उसकी पत्नी तृतीय सवन-इसमें श्रादित्य गृहमें याग होता वैसर्जन होमके पश्चात् अग्निको उत्तर कुण्डमें है। यजमान और उसकी पत्नी "भूतभृत" (सोम मिला देते हैं और सोमको हविर्दान मण्डपमें ले रसका प्याला) में दही मिलाकर विभुट याग जाते हैं। यूपमें पशु बांधा जाता है. और बलि आरम्भ करते हैं। इस क्रिया सपत्नीक यजमान बकरेकी दी जाती है। मृत पशुकी 'वपा' निकाल तथा ऋत्विज लोग मांस खाते हैं। पितरोंको कर उसका हवन किया जाता है और पशु पुरो- पिण्डदान दिया जाता है। 'चारू' भात सोमदेव डाश तय्यार किया जाता है। एक गगरीमें नदीका | को हवनमें अर्पण करते हैं। जल लाया जाता है. और उसमें सोम वल्ली कूटी पत्नीसंयाज-इस नामका अनुष्ठान किया जाता जाती है। है। इसमें अवभृत' स्नान किया जाता है। यजमान्, पशु पुरोडाश अंग याग और अंग याग-पशुके बचे उसकी पत्नि, तथा श्रध्व! वाहर आते हैं । नदी हुए अङ्गोकी यज्ञमें आहुति दी जाती है उसके | के किनारे जाकर स्नान करते हैं। मार्ग भर साम- श्रवशिष्ट भागोको भोजनके व्यवहारमें लाते हैं। गान होता है। स्नानान्तर नये वस्त्र पहनकर ये वसतीवरिपरिहण:-नदी जलको प्रधान ऋत्विज लौट आते हैं और उदयमेष्टि करते हैं। बांझ यक्ष मण्डपमें लाकर रखता है। हवनीय दूध, दही गायका याग करते हैं । यह अनुबन्ध्य भाग कह- इत्यादि भी इसी मण्डपमें रखा जाता है । इसी लाता है। कलिमें यह वाजित होनेसे 'मिक्षा भण्डपमें रात्रिको शयन करना पड़ता है। किन्तु नामक पदार्थका इसलिये प्रयोग किया जाता है। यजमानकी पत्नी प्राग्वंशमण्डपमै और यजमान तदनन्तर क्षौर इत्यादि कृत्य होता है। सत्व होम हविर्धानमण्डपमें सोम-रक्षार्थ जागता रहता है। होता है । अन्तमै अग्नि समारोप करके पूर्णाहुति सुत्याह अथवा सवनीय दिवस-पहले तो अध्वर्यु दी जाती है। अग्निमें ३३ हविः छोड़ता है । पश्चात् सवनीय पशु अग्निष्टोभ प्रधान यज्ञ माना गया है, और भी का अनुष्ठान होता है। हविर्द्रव्य पाँच प्रकारके बहुतसे यक्षोंमें यही सब किया थोड़े बहुत अन्तर तय्यार किये जाते हैं ( १ ) धाना ( सत्तू ) (२) से होती हैं। काम्भ (दूध और सत्तुका मिश्रण) (३) परिवाप अग्यारी-पारसियोंका मन्दिर । पारसियों रहता है।