पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/७८

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अनदानी 'ज्ञानकोष (अ)६८ अग्रवाल मैं अग्नि-पूजाका विशेष महत्व है और इनके मन्दिर | इनकी कविता सरल है और अपने इष्ट देवताके में भी अग्नि का विशेष स्थान है। इस शब्दका गुण गान, ध्यान श्रादिके लिये भक्तोंको प्रिय है। श्रार्थ भी अग्निमन्दिर कर सकते हैं। इनकी कविता विशेष साहित्यिक नहीं है और अष्ट इसमें अनेक पवित्र और धार्मिक कर्म किये छापके सुप्रसिद्ध कवि नन्ददासजीके ढंगकी है। जाते हैं। पारसियोंमें यह प्रथा है कि उनके | उदाहरणार्थ मन्दिरकी पवित्र अग्नि कभी बुझने नहीं कुण्डल ललित कपोल जुगुल अस परम सुदेसा । देना चाहिये ( सनातनी हिन्दुओंमै भी अग्नि- तिनको निरखि अकास लजत गकेस दिनेसा ॥ होत्री ब्राह्मण अपने हवनकुण्डकी अग्नि कभी | मेचक कुटिल विशाल सरोरुह नैन सुहाए । बुझने नहीं देते)। अतः इसी स्थान पर अग्नि मुख पंकजके निकट मनो अलि छौना श्राए ॥ सदा जागृत रहती है। इनके मन्दिरों में अग्निपूजा अग्रवाल (अगरवाला)--भारतकी एक के लिये एक विशेष स्थान होता है, उसीको दर प्रसिद्ध जाति । इस शब्दके भिन्न भिन्न अर्थ टीका- मैहर" अथवा "अग्यारी" कहना अधिक उपयुक्त | कागेने किये हैं-(१) श्रेष्ठ बालक (२) श्रम- होगा। 'दर' शब्दका अर्थ 'द्वार' और मेहेर'! गामी, (३) सूर्यवंशी राजा मानधानाकी सन्तान का मिथ्र देवता' । अतः इस शब्द का अर्थ हुश्राः (४) महीधरके पुत्र गजा श्राग्रनाथ अथवा श्रग्र- 'मिथदेव तक पहुँचका द्वार' । इस मन्दिरमें | सेनके वंशज । अग्निके भी कई भेद होते हैं: (१) श्रातिश उत्पत्ति-अग्रवालोंकी उत्पत्तिकी कथा पुराणों बेहेराम (२) श्रानिशश्रादरान और ( ३) प्रातिश | में भी मिलती है। पूर्वकालमें प्रतापनगरके गजा दादगाह । धनपालके आठ पुत्र और एक कन्या थी। इस मन्दिरमें भिन्न भिन्न पुजारी रहते हैं और का नाम मुकुटा था जो याज्ञवल्क्यऋपिसे व्याही उनके लिये भिन्न भिन्न स्थान निर्धारित रहते हैं। गई। आठ पुत्रों से नल नामका पुत्र तो संसार अग्रदानी-आसाम प्रान्तमें इस जाति की से विरक्त होकर साधु हो गया। अन्य सात--- जनसंख्या लगभग २०० है । ब्राह्मणों की | शिव, नन्द, कुन्द, कुमुद, वल्लभ, शेखर और अनेक उपजातियों से यह भी एक है। इस जाति अनिल सात द्वीपोंके राजा हुए। शिवको जम्बू के मनुष्य प्रेतदहनके समय मंत्र पढ़ते हैं और द्वीप मिला। उसीके कुलमें विश्य नामक गजा श्राद्धकी दक्षिणा और दान भी लेते हैं । ( सेन्सस् | हुआ उसका पुत्र वैश्य था। इसके वंशज इसी १६११ भाग ३) अग्रदानी शब्दका अर्थ ( अग्ने- नामसे प्रख्यात हुए। इसी कुलके राजाओने दानं श्रस्य ) मृत का दान लेने वाला ब्राह्मण है। कावेरीके तट पर रङ्गनाथका मन्दिर बनवाया (प्रेतोदेशेन यद्दानम् दीयते तत्प्रतिग्राही ।)। और नेपाल बसाया। इसी कुलमें मधु और इसकी व्याख्या इस प्रकार है:- महीधर हो गये हैं जो ब्यापारमें बड़े प्रवीण थे। लोभी विप्रश्च शूद्राणा मदानं गृहीतवान् । बल्लभके कुलमै द्वापरके चतुर्थ पीढ़ीमें राजा ग्रहणे मृत दानानां श्रग्रदानी बभूव सः॥ अग्रसेन हो गये हैं। यही अग्रवालोंके पूर्वज थे। अग्रदास यह जयपुर राज्यके अन्तर्गत दक्षिणम प्रतापनगर इनकी गजधानी थी। यह गलता नामक स्थानके निवासी थे। यह भी ऐसा प्रतापी राजाथा कि इन्द्र तक इसकी मित्रता बल्लभाचार्यजीकी शिष्य-परम्पराके श्रीकृष्णदास | का दम भरता था। एक बार ऐसा हुआ कि के शिष्य थे, परन्तु ये रामोपासनाकी ही और नाग लोकका राजा कुमुद अपनी कन्या माधवीके अधिक आकृष्ट हुए और श्रीरामजीको भक्तिसे साथ इसकी राजधानीमें श्राये। माधवीके रूप पूर्ण बहुतसे भजन रचे! इनके शिष्य, प्रसिद्ध | और गुण पर मुग्ध होकर इन्द्रकी इच्छा उससे भक्तमाल के रचयिता, नारायणदास (प्रसिद्ध नाम विवाहकी हुई किन्तु माधवीका विवाह गजा श्रग्र. नाभादास) थे जिनका समय सं० १५७५-१६२५ | सेन ही से हो गया। इन्द्रन इससे क्रुद्ध होकर के लगभग निश्चित किया जाता है। इस विचार | इसके राज्यमें वर्षा रोक दी। फलतः दानाम घोर से अग्रदासजीका समय नाभादासके गुरू हानेके युद्ध चला, किन्तु ब्रह्मदेवने मध्यस्थ होकर दोनों कारण चालीस या पचास वर्ष पहिले होगा। मे सन्धि करा दी। तत्पश्चात् राजा नगरी छोड़ इनकी निम्नलिखित रचनायें मिलती हैं- तीर्थाटनके लिये निकल पड़ा नीर महालक्ष्मीकी (१) कुण्ड लियाँ (२) श्रीरामध्यान मञ्जरी | पूजा करता रहा। इसने कपिलधाग और काशी (३) हितोपदेश भाषा (४) रामचरित्रके पद । में विश्वनाथके मन्दिर में अनेक यश किये । महा.