पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/८५

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। अघोरी ज्ञानकोश (अ)७५ अघोरी के समान घृणित तथा दुष्ट प्रकृति इन दोनों पंथों बिल्कुल ध्यान नहीं देते। प्राचीन कालमै युरोप की नहीं होती। पञ्जाबके औधर साधुओंसे इनमें में जर्मन और केल्ट लोग भी इससे अनभिज्ञ न कितनी भिन्नता है, यह भी निश्चयरूपसे कहना थे। एक कथा में इसका उल्लेख इस भाँति मिलता कठिन है। अन्य पंथोंसे मुख्य भेद तो इनमें ये है कि जब अल्बाइन ( Alboin ) ने अपनी रानी हैं कि ये मल खाते हैं और नरमांसका भी सेवन से उसके पिताके कपालमे मदिरा लाने का बहुत करते हैं। खाने पीनेके लिये मनुष्यकी खोपड़ी | श्रोग्रह किया तो उसकी मृत्यु हो गई ( Paalas का प्रयोग करते हैं। काली आदि देवियोंके शाक्त Diaconus History Langol ii-28 in Gum- उपासक जो कठिन तथा गूढ़ संस्कार करनेवाले inere Germain Ong. 120) अब भी बहुतों का होते हैं उनमें नरमेध और नरमांस-भक्षण वर्जित विश्वास है कि श्रात्महत्या किये हुए मनुष्य की नहीं है। ऐसी उपासना ५ वीं शताब्दीमै पूर्वीय | खोपड़ी में जल पीनेसे अपस्मार की व्याधि दूर बंगालमें प्रचलित थी। कलि पुराणमें नरबलि | होती है। का उल्लेख स्पष्ट पाया है। अब भी उसके बदले श्रोधड़ोंको सजा-मनुष्यों का शव खाने और कबूतर, बकरे, भैंसे इत्यादि वलि दिये जाते हैं । । मृतकों का अपमान करनेके लिये श्राधुनिक काल यह सब प्रथाएँ हिन्दुओमें अनार्यों द्वारा प्रवेशकर में बहुतसे औघड़ों को कठिन कारावास दिया गई होगी। अव भी श्रासामकी ओर यह प्रथा जा रहा है। १८६२ ई० में गोरखपुरके सेशन बहुत कुछ प्रचलित है। ऐसा अनुमान किया जा | जजने एक औघड़ को मृतक का शव सड़क पर सकता है कि अवघडॉका इस धर्मसे बहुत निकट घसीट कर ले जानेके अभियोगमें इण्डियन पेनल सम्बन्ध रहा होगा। कोडकी २७० और २६७ धाराके अनुसार ६ मास कुछका दूसरा भी मत है। जंगली जातियों का कठिन कारावास दिया था। इसी प्रकारके में अब भी बहुतसे जादू टोना करनेवाले होते हैं। और भी मुकदमो का पता १८८२ ई० में पञ्जाब ये लोग अपनी आध्यात्मिक उन्नतिके लिये तथा । के रोहतक जिलेमें, और देहरादूनमें १८८४ ई० में दूसरोकी दृष्टि से अपनेको बचाने तथा घृणाका लगता है १८८४ ई० में गंगाके तटपर नर- पात्र समझाने के लिये ऐसे घृणित श्राचार मांस भक्षण करते हुए एक अघोरी को दो युरो- व्यवहार करते हैं। अघोरियों का मूल यही होगा। पियनोंने पकड़ा था। उसके झोपड़ीके चारों ओर शैव सिद्धान्तके आधार पर सब एक ही है, भेद । बाँसपर बहुतसे नरमुण्ड लटक रहे थे, जिनमें से कहीं कुछ है ही नहीं। इसीसे अवघड़ोंका प्रचार एक तो बिल्कुल ताजा था। हुआ। किन्तु यह कल्पना अाधुनिक ही है । अघोरी दीक्षा---प्रायः ये लोग अपने मन्त्र और नरकपाल का वर्तनके समान उपयोग-कुछ । दीक्षा-विधि गुप्त रखते । बहुत सी बातें तो जगह ऐसा भी विश्वास है कि नरकपालमै विशेष नवीन दीक्षा लेने वालोंसे भी गुप्त रक्खी जाती जादू रहता है। भारतके अघोरियोंके अतिरिक्त हैं। अतः इसका विश्वस्त पूरा पूरा ब्यौरा मिलना भी इसका उपयोग अन्य देशोंमें पूर्वकालमें होता तो कठिन है। एक का कथन है कि दीक्षा-कालमें था। पूर्व अफ्रिकाके वाड़ो ( Widoe ) जातिमें गुरू शंख बजता है और अन्य अघोरी दूसरे बाजे राज्याभिषेकके समय राजा किसी युवक की बजाते हैं । तदनन्तर गुरु नरमुण्डमै पेशाब करता खोपड़ी का बर्तनके स्थान पर उपयोग करता है। है और उसीसे भावी शिष्यकी खोपड़ी मूड़ी पूर्व राजपुरोहितके मरनेके बाद जब नया पुरो- जाती है। तदनन्तर वह नवीन शिष्य थोड़ी सी हित बनाया जाता है तो वह पूर्व पुरोहित की | मदिरा और नीच जाति की भिक्षा का सेवन खोपड़ीमें पानी पीता है। इन लोगों की ऐसी करता है। गेरुवा वस्त्र धारण कर हाथमें दण्ड धारणा है कि इस क्रियासे पूर्व पुरोहित की आत्मा धारण करके शिष्य अपने गुरूसे कानमें मन्त्र नवीन पुरोहितमें प्रवेश कर जाती है । हिमालयमै लेता है। कुछका कथन है कि इसी अवसर पर हिमवातसे मरी हुई स्त्रियोंकी खोपड़ी भूतप्रेत | नरमांस भी आवश्यक है। वाधा दूर करनेमे नगाड़ेके समान व्यवहारमे लाई काशीके अघोरी दीक्षाके विषयमें कहाजाता है जाती है। इन सब बातोंसे यह पता चलता है कि कि अघोरियों के प्रथम पुरुष किनाराम की समाधि पूर्वकाल में जो खोपड़ी इन सब क्रियाओंके लिये | पर ही यह क्रिया की जाती है। समाधिपर दो चुनी जाती थी वह विशेष सावधानीसे चुनी प्याले---एकमे भांग और एकमें मद्य-रक्खे जाते जाती थी किन्तु आजकल अघोरी इस ओर हैं । जो अधूरी दीक्षा लेते हैं अर्थात् अपनी जाति -