पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/७८

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ठाकुर उसक 1 बहल बिलंद बरसा के विरुदैत कछू, कठिन कजाक कैफ खाये से फिरत हैं ॥४॥ फुटकर । बाजे मुर ढुंदुभी अबाजे अति आनंद की, मेघन मजा से मंजु कैसी झर लाई है। धन्य या सुदिन सुख सोहरो महीना धन्य, हम सब धन्य ब्रज भूमि धन्य गाई है। 'चातुर' करोर भांति धन्य नंद गोप को है, भारत की भलाई जाकी बरनी न जाई है। धाई घाई फिरत बधाई धाम धामन मैं, आजु जसुधा के वसुधा की निधि आई हैं॥५॥ सवैया भावती मंगल गीत मनोहर पूरन प्रीति की रीति दिखा। धन्य धरा बरसाइत जानिये मानिय भाग्यवती यहि पाई 'चातुर' रंगभरी उमंगो जमुना तट जोबन जोति जगाई। भाज विनोद भरी बनिता बर पूजत गौरि गनेस मना ॥६॥ चित्र विचित्र रचै रचना रचि जानत कोऊ न भेद प्रवीने। ल बनानैं मुनीस बखानै न जानें तऊ छल ये रस भोने ॥ खातुर संग सखी न सखा बन लेत सबै मुख स्वाद नवीने । मोहिनी के कर मोहन आज लगावत हैं मेहँदी मनु दीने ॥ कालिंदी कूलन फूलन सों भरी सुंदरता सी भरी रस लोहै। साँवरे अंग सुरंग दुल सराही न जात कछू छवि जो है। चातुर, राधे लली परखो हरखी हर भाँतिन सो मन मोहै। कूलन वारी मनोज की लंन झूलनवारी नई यह को है ?