पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१०५

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तसव्वुफ अथवा सूफीमत के व्यापक और अंतर्यामी स्वरूप का ध्यान धर उसको अपने साथ समझ लेते हैं, फिर उसके अंश-विशेष के पारायण में तल्लीन हो जाते हैं। 'समाअ' ( संगीत ) जिक्र का सबसे अधिक प्रचलित और क्रियात्मक रूप है उसके विषय में विद्वानों में जितना विवाद छिड़ा उतना जिक्र के किसी भी अंग पर नहीं । तसव्वुफ में भी कतिपय संप्रदाय समा के पक्के प्रतिपादक हैं तो कुछ उसके कट्टर विरोधी । कुरान एवं हदीस में संगीत के विषय में चाहे कुछ भी न कहा गया हो, पर व्यवहार में इसलाम उसका सदा से विरोध करता आ रहा है। किसी उत्सव में यदि उसका भान होता हो तो उसे सहज उल्लास का परिणाम समझना चाहिए, धर्म का विधान नहीं। किसी भी वाद्य का निषेध कर जब सलात के आमंत्रण में गले की कोमलता भंग की जाती है तब हम अच्छी तरह समझ जाते कि इसलाम वाद्य का विरोधी और संगीत का द्वेषी है। कवियों की कुत्सा कर अंतिम रसूल ने सिद्ध कर दिया कि उन्हें संगीत से प्रेम नहीं । नृत्य को तो इसलाम एक प्रकार की बुतपरस्ती ही समझता है, फिर भला उसमें समा का संग्रह किस प्रकार संभव था? तो क्या समा के संपादन के लिये इसलाम में कुछ भी संकेत न था ? नहीं यह बात नहीं है। 'वही' की दशा में स्वयं मुहम्मद साहब को घंटी का सा कल. निनाद स्पष्ट सुनाई पड़ता था। कुरान के सुकंठ पारायण से आप मुग्ध हो जाते थे। आज भी हज के उन्मत्त यात्री इधर-उधर मका के दिव्य प्रांतों में दौड़ते-फिरते गोचर होते हैं । काबा की परिक्रमा उस प्राचीन उल्लास की परिपाटी है जो किसी उत्सव के समय नाच-रंग के उद्दीपन से मूर्तियों के चुंबन एवं आलिंगन में व्यक्त होता था और देवता का प्रसाद समझा जाता था। अतः समा की सत्ता किसी न किसी रूप में इसलाम में भी बनी रही और समय पाकर सूफियों में फिर फूट निकली। (१) दा रेलिजस ऐटिच्यूड एण्ड लाइफ इन इसलाम, पृ० ४६ । (२) इसराएल, पृ० २६१ ।