पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१०७

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है कि साधक तसव्वुफ अथवा सूफीमत में जब इसका सम्मोहन राग अालापा जाता है, कव्वाल जब अपना गुन दिखाता है तब लोग भावोद्रेक के कारण अचेत हो जाते हैं.-झूमते झूमते गिर पड़ते हैं। उन्हें हाल या जाता है और इलहाम भी होने लगता है। सारांश यह कि वे समा की पराकाष्ठा को पहुँच जाते हैं । उनको सिद्धि की प्राप्ति हो जाती है । जिक्र के नाना रूपों का जो संक्षिप्त परिचय दिया गया है उससे प्रत्यक्ष होता सालिक ) के लिये किसी भेदिया' ( मुरशिद) का होना परम श्रावश्यक है। सूफी इस पथ को शरीअत ( कर्मकांड ) से भिन्न मानते हैं। उनके मत में शरीअत एक सामान्य विधि है उसके पालन से सहजानंद नहीं मिल सकता, उससे तो केवल प्रियतम की उत्सुकता हासिल होती है। प्रियतम के दीदार का दर्शक तो कोई अनुभवी संत ही होगा जो कृपा कर उसके पथ का पता बता देगा। उपासक ( आबिद ) को जब शरीअत में संतोष नहीं मिलता और उम्मे प्रियतम के मार्ग को जानने की उत्सुकता हो जाती है तब वह किसी जानकार के पास पहुँचता है। मुरशिद उसकी लगन को देख उसको मुरीद बना लेता है और एक निश्चित मार्ग का उपदेश दे उसे उस पथ पर चलने की अनुमति दे देता है । उसका प्रधान काम होता है कि वह मुरीद में खुदा का इश्क भर दे। मुरीद अब सूफी-क्षेत्र में आ जाता है और उस परम प्रियतम के संयोग के लिये विरही बन प्रेम-पंथ पर निकल पड़ता है। शरीअत को पार कर वह 'तरीकत' के क्षेत्र में विचरता है। तरीकत की दशा में उसको अपनी चित्त-वृत्तियों का निरोध या जेहाद करना पड़ता है । जब वह इस क्षेत्र में सफल हो जाता है तब उसमें म्वारिफ का आविर्भाव होता है और वह सालिक से आरिफ बन जाता है । म्वारिफ के उदय से उसमें परमात्मा के स्वरूप की चिंता प्रारंभ हो जाती है और वह 'हकीकत' के क्षेत्र में पहुँच जाता है। हकीकत में उतरने से उसे प्रियतम का संयोग मिल है और वह धीरे धीरे 'वस्ल' से 'फना' की दशा में पहुँच जाता है। उसे स्मरण भी नहीं रह जाता कि वह प्रियतम से भिन्न है। वह द्वंद्व से मुक्त हो 'हन' बन जाता है और अपने को हक घोषित करने लगता है।