पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१०८

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साधन । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि शरीअत का तसव्वुफ से कोई खास लगाव नहीं । शरीअत की अवस्था में मुसलिम और सूफी एक से हैं। दोनों के क्रिया- कलाप एक ही हैं। शरीअत के पालन में जो मुसलिम दत्तचित्त होगा उसमें 'मोहब्बत' का आविर्भाव होगा और उसी मोहब्बत की प्रेरणा से वह अलौकिक प्रियतम की खोज में निकल पड़ेगा। इस मोहब्बत का उत्पन्न होना सरल नहीं है। इसकी प्राप्ति के लिये बहुत कुछ करना पड़ता है। सबसे पहले तो मोमिन (प्रणयी) को उन बातों का त्याग तथा पश्चात्ताप करना पड़ता है जो उन्हें अल्लाह की ओर अग्रसर होने में रुकावट डालती हैं। फिर उसे उन बातों का सामना करना पड़ता है जो उसे अल्लाह की ओर से विमुख करना चाहती हैं जब वह अपने प्रयत्न में सफल होता है तब उसे संतोष से काम लेना पड़ता है नहीं तो उसमें गर्व का संचार हो जाता है और वह शैतान के फंदे में फंस जाता है। शैतान के भुलावे से बचने के लिये उसे ईश्वर का कृतज्ञ होना चाहिए और उसी के आदेश पर चलना चाहिए। ईश्वर के आदेश पर चलने के लिये उसमें ईश्वर का भय होना चाहिए । देवर से भयभीत रहने के साथ ही ईश्वर पर पूरा भरोसा रखना चाहिए और जीविका के फेर में इधर-उधर नहीं भटकना चाहिए । जो कुछ ईश्वर की ओर से प्राप्त हो उसी में प्रसन्न रह संसार से अलग होना चाहिए। तटस्थ हो ईश्वर का अनुध्यान करना चाहिए। अनुध्यान से ईश्वर में प्रीति उत्पन्न होगी। प्रीति उत्पन्न होने से मोमिन या मुसलिम सूफी बन जायगा और शरीश्रत से आगे बढ़कर तरीकत का उपयोग करेगा। अस्तु, मुसलिम को तसव्वुफ के क्षेत्र में पदार्पण करने के लिये सामान्यतः तोबा, जहद, सन, शुक्र, रिजाअ, खौफ़, तवक्कुल, रजा, फ़िक और मोहब्बत का क्रमशः अनुष्ठान करना पड़ता है। कुछ लोग इन्हीं को मुकामात कहते हैं। पर वास्तव में ये मुसलिम मुकामात हैं, सूफियों के नहीं; क्योंकि सूफी मोहब्बत को अपना प्रेम-प्रस्थान समझते हैं, लक्ष्य नहीं।

(१) इल्म तसव्वुफ, पृ. ३८३ ।