पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/११

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देखा और अपने मत को सर्वथा हिन्दी बना लिया। फिर उनकी रचना में 'तसव्वुफ' शब्द का दर्शन होता तो कहाँ से और कैसे होता? किन्तु आज जब 'भाव' की उपेक्षा कर 'भाषा' पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है तब 'हिन्दी' का तसव्वुफ' से अपरिचित रह जाना ठीक नहीं, यही जान कर यहाँ तसव्वुफ का व्यवहार भी खूब किया गया है और यह प्राशा की गई है कि इस प्रकार हिन्दी के लोग भी इसलामी तसव्वुफ से भलीभाँति अभिज्ञ हो जायँगे।

'तसव्वुफ अथवा सूफीमत' की रचना ३३-३४ में हुई थी किन्तु उसका प्रकाशन हो रहा है ४४-४५ में। इस प्रकार रचना और प्रकाशन में जो १०-१२ वर्ष का अन्तर पड़ रहा है वह भी एक दृष्टि से विचारणीय है। उस समय लेखक के हृदय में भावना थी डाक्टर होने की और फलतः यह रचना भी रची गई थी उसी की भूमिका के रूप में। किन्तु घटना कुछ ऐसी घटी कि इस जन को काशी विश्वविद्यालय से नाता तोड़ना पड़ा और टूट गया उसीके साथ डाक्टर होने का विचार भी। हिन्दू-विश्व विद्यालय में हिन्दी की उपेक्षा हो और यह जन कहीं और से डाक्टर बने यह उसकी भावना के सर्वथा प्रतिकूल था। अतः अपनी विवशता के कारण उसे इसको जहाँ का तहाँ छोड़ना पड़ा और फलतः आज तक यह कार्य अधूरा ही रह गया। जिस-तिस की प्ररणा से जहाँ तहाँ से इसके प्रकाशन की बात भी चली पर अपनी अयोग्यता के कारण वह पूरी न हो सकी। निदान चुप हो बैठ रहा और हिन्दी में कुछ करते रहने के विचार से और ही कुछ लिखता-पढ़ता रहा। हाँ, समय-समय पर इसके अध्याय यत्र-तत्र प्रकाशित भी होते रहे। इस प्रकार 'उद्भव', 'विकास', 'परिपाक', 'आस्था', 'साधन' और 'प्रभाव' तो ना० प्र० पत्रिका में प्रकाशित हो गए और 'अध्यात्म' को श्री 'हरिऔध-अभिनन्दन-अन्य' में स्थान मिला। 'भारतका ऋण' काशी-विश्व-विद्यालय के 'जरनल' में पहुँचा और काँटे पर चढ़ भी गया। शोध कर भेजा गया तो सूचना मिली कि अमुक व्यक्ति से मिल लो। मिलनेकी बात जँची नहीं। किसी से मिलकर कुछ छपाने का विचार तब भी न था। परिणाम यह हुआ कि वह प्रकाशित न हो सका और जहाँ का तहाँ रह क्या गया, खो गया और हिन्दी को फिर कभी स्थान न मिला।