पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/११०

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साधन उनका संघ स्वतंत्र हो गया । उनको 'अाजाद', 'बेशरा', 'जिंदीक़' प्रादि की उपाधि मिली। उनमें मारिफत और हकीकत का श्रालोक रहा । शरीअत, तरीकत, मारिफत और हकीकत को हम क्रमशः कर्मकांड, उपासना- कांड, ज्ञानकांड एवं ज्ञाननिष्ठा कह सकते हैं । पर इस संबंध में यह स्मरण रखना चाहिये कि मुक्ति के लिये जो भारत में कर्म, भक्ति और ज्ञान नामक अलग अलग मार्ग चले उनका वर्गीकरण जितना स्पष्ट है उतना सूफियों का नहीं। सच पूछिए तो सूफियों ने उनके वर्गीकरण का प्रयन ही नहीं किया। भगवान् के साक्षात्कार के लिये उन्होंने केवल भक्ति-मार्ग को चुना और उसी की रक्षा तथा पुष्टि के लिये शरीअत तथा मारिफत की शरण ली। शरीअत से प्रोत्साहन पा मुरीद तरीकत में लगा और धीरे धीरे हकीकत की दशा में जीवन्मुक्त हो गया। अतएव एक ही व्यक्ति एक ही मार्ग में कर्मठ से साधक, साधक से ज्ञानी और ज्ञानी से 'हंस' बन गया । हंस बनकर भी वाशरा सूफी शरीअत का पालन लोक-रंजन की दृष्टि से करते हैं। उन्माद या समाधि की दशा में शरा की अवहेलना क्षम्य ही होती है। क्योंकि उस समय प्राणी परमेश्वर के पास ही होता है। उसे किसी साधना की आवश्यकता नहीं रहती। अात्मा और परमात्मा, अब्द एवं अल्लाह की मीमांसा में हल्लाज' ने 'नासूत' एवं 'लाहूत' की कल्पना की थी। इस प्रकार की लोक-कल्पना से उसको अपने मत के प्रतिपादन में पूरी सहायता मिली थी। हल्लाज के उपरांत इमाम गज्जाली' ने लोक-कल्पना पर विशेष ध्यान दिया । उसने नासूत के साथ 'मलकूत' और लाडूत के साथ 'जबरूत' का विधान कर इसलाम की गुस्थियों को सुलझाने तथा तसव्वुफ को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया । सूफियों ने नासूत, मलकूत, जबरूत और लाहूत चारों का स्वागत किया और किसी किसी ने एक अन्य लोक 'हात' की भी कल्पना कर डाली। ब्रह्मांड में लोकों की जो व्यवस्था है उससे सूफियों का उतना संबंध नहीं रहता; उन्हें तो पिंड के भीतर उनको देखना रहता है। (१) स्टडीज इन इसलामिक मिस्टीसोम, पृ० ८० ।