पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/११६

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प्रतीक उससे जनता का मनोरंजन भी पूरा पूरा हो जाय। आगे चलकर देश-काल और संस्कारों की भिन्नता के कारण यद्यपि सूफियों में भी अनेक पंथ चल पड़े तथापि प्रतीकों की महिमा सब में अक्षुण्ण रही। धीरे धीरे प्रतीकों का प्रचार सूफियों में इतना व्यापक और गहरा हो गया कि सभी पंथों ने मुक्तकंठ से उनकी प्रशंसा की और उनके श्रावरण में ही अपने मत का प्रदर्शन ठीक समझा। फल यह हुआ कि सूफी-साहित्य प्रतीकों से भर गया और उसका सारा वैभव प्रतीकों पर अवलंबित हो गया । प्रतीकों के संबंध में यह स्मरण रखना चाहिए कि प्रकृति के नाना रूपों पर हमारी दृष्टि व्यर्थ ही नहीं पड़ती, उनसे हमारे हृदय का कुछ रागात्मक संबंध भी होता ही है । इस संबंध का मुख्य कारण दृश्यों का आकर्षण नहीं, हमारी वृत्तियों का रागात्मक लगाव ही है जो उनसे किसी न किसी प्रकार का संबंध जोड़ ही देता है। कतिपय द्रष्टाओं का तो यहाँ तक कहना है कि वास्तव में दृश्यों की कुछ निजी सत्ता नहीं है, उनकी तद्रूपता का कारण हमारा ज्ञान ही है जिसके संकल्प-विकल्प से उनकी प्रतीति होती है । कुछ भी हो, इतना तो निर्विवाद है कि प्रकृति के जिन दृश्यों पर हमारी दृष्टि पड़ती है उनमें कतिपय ऐसे होते हैं जिनमें सुख-दुःख, राग- द्वेष आदि द्वन्द्व का व्यापार उसी प्रकार चलता दिखाई पड़ता है जिस प्रकार हमको अपने में । प्रकृति के साथ इस प्रकार के भावों का जो तादात्म्य हो जाता है उसका परिणाम यह होता है कि हम अपने भावों के प्रत्यक्षीकरण में उन्हीं दृश्यों का निदर्शन करते हैं। हमारे इस प्रयत्न का परिणाम यह होता है कि हमारे सूक्ष्म भावों को भव्य और मूर्तरूप मिल जाते हैं जिनके आधार पर उनका साधारणी- करण आसानी से हो जाता है। हम उन्हीं रूपों को प्रतीक के रूप में ग्रहण करते हैं और प्रायः अपने अमूर्त भावों को मूर्त रूप दे उन्हीं के द्वारा उन्हें बोधगम्य और सरल बना लेते हैं। प्रतीकों के बारे में जो कुछ कहा गया है उससे स्पष्ट हो गया होगा कि वस्तुतः प्रतीक भी कभी हमारे भावों के बालंबन रहे होते हैं और अपने विशिष्ट गुणों के कारण ही वे हमें इतने प्रिय लग जाते हैं कि हम किसी भाव के साक्षात्कार के