पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/११८

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प्रतीक गद्दी पर बैठा दिया जाता है त्यों ही उनकी ध्वंसलीला प्रारम्भ हो जाती है।। मानव भाव-भूमि की एकता में किसी को सन्देह नहीं, पर प्रतीकों की एकता को कितने लोग समझ पाते हैं ! इस विभेद का मुख्य कारण यह है कि प्रतीक देश- काल और परिस्थिति के अनुरूप होते हैं और उनके निर्माण में परंपरागत संस्कार का हाथ होता है जो सबके एक से नहीं होते 1 निदान जो लोग किसी संस्कार की उपेक्षा कर केवल मूल मानव भाव-भूमि पर विचरते हैं उनको किसी प्रतीक के लिये आग्रह नहीं होता, क्योंकि उन्हें सर्वत्र एक ही भाव का अधिष्ठान दिखाई देता है। परंतु जिनकी दृष्टि बाहरी बातों में ही उलझ कर रह जाती है वे प्रतीकों के लिये ही लड़ मरते हैं और प्रतीकों के मूल भाव को सर्वथा खो बैठते हैं। सूफियों ने प्रतीकों की प्रतिष्ठा की तो उनके महत्व को समझा भी और उनके मूलभाव का प्रकाशन कर मानव को एक भावसूत्र में बाँध भी लिया। कारण कि सूफी भली- भाँति जानते हैं कि भगवान् भाव में बसते हैं, प्रतीक या किसी बाहरी वस्तु में नहीं। प्रतीक तो इसलिये चलते हैं कि हम उनके सहारे भगवान् का स्वरूप अच्छी तरह समझ सकें, न कि इसलिये कि हम उनके लिये आपस में लड़ मरें। तभी तो अरबी सरीखे मर्मी ने स्पष्ट कहा है कि लोग पूजा तो करते हैं अपनी भावना की प्रतिमा वा प्रतीक को और समझते हैं उसे ध्रुव सत्य की आराधना । फिर आपस में क्यों न लड़ मरें ? ऐसी मूढ़ता की कहानियों से साहित्य भरा पड़ा है। सचमुच सभी अपनी अपनी भाषा में उसी का नाम लेते हैं और अपने अपने प्रतीक में उसीका भाव जगाते हैं । भेद भाव का नहीं, रूप का है । (?) "In religion, symbolism is a lielp and a hindrance. It provides a sign for an idea and is useful in recalling the idea. But when, instead of recalling, it replaces the idea; it becomes a menace" (Origin and Evolution of Religion. Hopkins. P.45) (२) दी मिस्टिक्स आव इसलाम, पृ० ८८.८७ ।