पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१२

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हाँ, इसी बीच एक घटना और घटी। काशी-विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में हिन्दी के 'निर्गुण सम्प्रदाय' पर अनुशीलन हो चला था। 'संत-सम्प्रदाय' पर शोध हो चुकी थी। 'सूफी-सम्प्रदाय' पर काम करना अपने राम को मिला था। सो देखा तो प्रकट दिखाई दिया कि हिन्दी के सन्त कवियों में भी कुछ सूफी हैं। संत-सूफी का प्रश्न उठा। सूफी के संकेत पर विचार हुआ। निष्कर्ष यह निकला कि जो जन्म से मुसलमान और कर्म से सूफी हो उसे ही सूफी माना जाय, किसी अन्य को नहीं। बस, सूफियों पर ध्यान दिया तो उनमें ऐसे भी निकल आए जो कुरान-पुरान को कुछ समझते ही नहीं और अपने राम को ही सब कुछ मानते हैं। अस्तु, देखा यह कि कोई कारण नहीं कि सूफी-परम्परा पर ध्यान रखते हुए भी हम उन संतों को सूफी न समझे जो जन्म से मुसलमान पर इसलाम के भक्त नहीं: हाँ, आत्माराम के पुजारी हैं। फिर क्या था, उन सभी संत कवियों को 'सूफी-सम्प्रदाय' में घसीट लिया गया जो मुसलमान होने पर भी 'निर्गुण' अथवा 'संत'-समाज में जा विराजे थे। इस प्रकार हिन्दी के सूफी कवियों में दो वर्ग निकल आए और उनका नाम भी सूफी परम्परा के अनुकूल ही रख दिया गया 'सालिक' और 'आजाद'। कहनेकी बात नहीं कि ऐसे 'आजाद' अथवा संतसूफियों में कबीर ही सर्वप्रधान थे जिनको लेकर उस समय परस्पर विवाद छिड़ गया और जो कुछ बीता उसका यह प्रसंग नहीं। यहाँ इसके छेड़ने का अभिप्राय इतना भर है कि पाठक इससे जान लें कि इससे इतने दिनों तक अलग हो जाने के कारण क्या हुए और किस प्रकार सूफी साहित्य के अनुशीलन का कार्य अधूरा रह गया।

परन्तु सबसे विकट बात यह हुई कि सूफियों की खोज में यह 'प्रेम-पीर' का पुजारी जहाँ पहुँचा वहाँ कुछ और ही 'पीर' दिखाई दी! देखा कि भाषा को छोड़कर 'भाव' को कोई पूछता ही नहीं है। सभी उर्दू के हो रहे हैं; और जैसे-तैसे उस 'भाषा' को मिटाना चाहते हैं जिसमें 'प्रेम की पीर' कूट कूट कर भरी है। निदान 'भाव' को छोड़कर 'भाषा' का हो रहा और आज जब यह रचना छपकर प्रकाशित हो रही है तब 'भाषा' के रूप में ही सबके सामने छा रहा है। किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि यह 'भाषा' की रक्षा और कुछ नहीं उसी 'भाव' की रचा है